कभी नहीं
तुम कभी सुखी नहीं रह सकती!!!!!!!
कभी नहीं!!!!
वह रह भी कैसे सकती है
सुखी जिसको विधि प्रकृति ने
ही सुखदायिनी तो बनाया हो सुखभोक्त्री कदापि नहीं ।
कैसे समझे कोई
कि जीवन उसकी धङकनों में भी है
जबकि उसकी नियति ही कर
दी गयी हो बिस्तर बच्चे और रसोई!!!!
कभी सोचना
बचपन से ही जिसके जन्म पर घिर जाती है
आसपास एक अनचाही उदासी ।
एक अवांछित शिशु!!!!!
जीवित रहे तो न रहे तो!!!
जीवित शिशु के हाथों से छीन लिये जाते है
कंचे पतंगे रैकेट बल्ले और फुटबॉल
थमा दी जाती है गुङियाँ गुड्डे
नकली गृहस्थी
सुई धागे ऊन सलाई
बेलन चकले कूचे बुहारू और परांत
कङाही पतीली चमचे कलछियाँ ।
अभी होश भी नहीं आया होता है कि रोक
दिया जाता है पेङों पर
चढ़ना तैरना कूदना और बाहर छत
गली का खेलना ।
हर महीने रखने लगतीं है माँयें दिनों के
हिसाब और दर्द के लिये गोलियों के
ज़वाब ।
थाली पर होने लगते है नियंत्रण
कभी वजन के बढ़ने के बहाने कभी पुत्र
पुत्री के भेदभाव जाने या अनजाने ।
छुङा दी जाती है प्रतियोगी परीक्षायें
किताबें और बङी तालीम ।
बढ़ती लङकी जैसे घर की नींव पर
कङवा नीम ।
जङों से काटकर रख दी जाती है अकसर
कलम
किसी अजनबी मिट्टी हवा पानी प्रदेश
और परिवेश में ।
अजनबी हो जाती है सोन चिरैया अपने
ही घर नगर प्रदेश और देश में ।
दायरों पर दायरे और
कर्त्तव्यों की सूचियाँ अनुसूचियाँ
चंद महीनों के बाद रह जातीं हैं
थालियाँ
कचरे
सजावटें
संग्रह
बचत
और यदा कदा सहानुभूति या स्वानुभूत
किंचिंत प्रेम कम धर्म और फर्ज़
की अनुभूतियाँ।
फिर बढ़ती आकांक्षायें उम्मीदें और
नौ मास के पल पल त्रास ।
जन्म मरण की देहरी पर पुनर्जीवन के
अभित्रास
चक्रव्यूह के बीच मारा जाता योद्धा मन
मस्तिष्क प्रेम संकल्प सपनों का अभिमन्यु
प्रयास और हर बार
सुख
उङाता रह जाता दुर्योधनी उपहास
हरण हो जाता
स्वाधिकार की वैदेही का
और स्वजीवनेच्छा की अहिल्या हर बार
प्रस्तरीकृत रह जाती बन कर पश्चाताप
रह जाती विरहिन राधिका और
उपेक्षिता रुक्मिणी ।
सुकन्या को वर ले जाता कर्त्तव्य
का नपुंसक च्यवन और सावित्री की तलाश
हमेशा समाप्त हो जाती अल्पायु दरिद्र
प्रेम के जीवित रखने के यमसंघर्ष में ।
महिमामंडित
रहती शक्ति की सती को कूदना होता है
स्वजनक के तानों में ।
स्त्री
और
सुख??
ये एक विचित्र प्रश्न है और स्त्री हुये
बिना न समझा जा सके न कहा जा सके ।
सुख तो मन की एक अवस्था है जो चीखों के
बाद लथपथ पसीने लहू से अचेत होती आँखें
देख नन्हीं काया मुस्करा देतीं पीङा के
श्लथ अकथ बयानों में ।
©®सुधा राज
कभी नहीं!!!!
वह रह भी कैसे सकती है
सुखी जिसको विधि प्रकृति ने
ही सुखदायिनी तो बनाया हो सुखभोक्त्री कदापि नहीं ।
कैसे समझे कोई
कि जीवन उसकी धङकनों में भी है
जबकि उसकी नियति ही कर
दी गयी हो बिस्तर बच्चे और रसोई!!!!
कभी सोचना
बचपन से ही जिसके जन्म पर घिर जाती है
आसपास एक अनचाही उदासी ।
एक अवांछित शिशु!!!!!
जीवित रहे तो न रहे तो!!!
जीवित शिशु के हाथों से छीन लिये जाते है
कंचे पतंगे रैकेट बल्ले और फुटबॉल
थमा दी जाती है गुङियाँ गुड्डे
नकली गृहस्थी
सुई धागे ऊन सलाई
बेलन चकले कूचे बुहारू और परांत
कङाही पतीली चमचे कलछियाँ ।
अभी होश भी नहीं आया होता है कि रोक
दिया जाता है पेङों पर
चढ़ना तैरना कूदना और बाहर छत
गली का खेलना ।
हर महीने रखने लगतीं है माँयें दिनों के
हिसाब और दर्द के लिये गोलियों के
ज़वाब ।
थाली पर होने लगते है नियंत्रण
कभी वजन के बढ़ने के बहाने कभी पुत्र
पुत्री के भेदभाव जाने या अनजाने ।
छुङा दी जाती है प्रतियोगी परीक्षायें
किताबें और बङी तालीम ।
बढ़ती लङकी जैसे घर की नींव पर
कङवा नीम ।
जङों से काटकर रख दी जाती है अकसर
कलम
किसी अजनबी मिट्टी हवा पानी प्रदेश
और परिवेश में ।
अजनबी हो जाती है सोन चिरैया अपने
ही घर नगर प्रदेश और देश में ।
दायरों पर दायरे और
कर्त्तव्यों की सूचियाँ अनुसूचियाँ
चंद महीनों के बाद रह जातीं हैं
थालियाँ
कचरे
सजावटें
संग्रह
बचत
और यदा कदा सहानुभूति या स्वानुभूत
किंचिंत प्रेम कम धर्म और फर्ज़
की अनुभूतियाँ।
फिर बढ़ती आकांक्षायें उम्मीदें और
नौ मास के पल पल त्रास ।
जन्म मरण की देहरी पर पुनर्जीवन के
अभित्रास
चक्रव्यूह के बीच मारा जाता योद्धा मन
मस्तिष्क प्रेम संकल्प सपनों का अभिमन्यु
प्रयास और हर बार
सुख
उङाता रह जाता दुर्योधनी उपहास
हरण हो जाता
स्वाधिकार की वैदेही का
और स्वजीवनेच्छा की अहिल्या हर बार
प्रस्तरीकृत रह जाती बन कर पश्चाताप
रह जाती विरहिन राधिका और
उपेक्षिता रुक्मिणी ।
सुकन्या को वर ले जाता कर्त्तव्य
का नपुंसक च्यवन और सावित्री की तलाश
हमेशा समाप्त हो जाती अल्पायु दरिद्र
प्रेम के जीवित रखने के यमसंघर्ष में ।
महिमामंडित
रहती शक्ति की सती को कूदना होता है
स्वजनक के तानों में ।
स्त्री
और
सुख??
ये एक विचित्र प्रश्न है और स्त्री हुये
बिना न समझा जा सके न कहा जा सके ।
सुख तो मन की एक अवस्था है जो चीखों के
बाद लथपथ पसीने लहू से अचेत होती आँखें
देख नन्हीं काया मुस्करा देतीं पीङा के
श्लथ अकथ बयानों में ।
©®सुधा राज
Comments
Post a Comment