अकविता--जिंदा ज़िस्म मुरदा ज़मीर
जब गली में चीखती आवाज़ें गूँजी तुम
नहीं उठे ।
जब घर में सिसकने की आवाजें गूँजी तुम नहीं उठे
जब खुद तुम्हारे हृदय में चीखने के स्वर गूँजे
तब भी तुम नहीं उठे!!!!!!
तो सुनो मेरी कोई भी पुकार तुम्हारे लिये
थी ही नहीं किसी की कोई पुकार तुम्हारे लिये हो सकती है
क्योंकि पुकारा सिर्फ़
जीवितों को जाता है और सुनकर सिर्फ वे
ही दौङ कर आते हैं जो हाथ पाँव कान और आवाज रखते हैं
ना होते हुये भी सुनने कहने देखने की दैहिक क्षमता के बावज़ूद वे सब
तुमसे बेहतर है जो दिमाग रखते नहीं केवल उसे इस्तेमाल भी करते हैं । उस
दिमाग और दिल की धधक और
धङक के साथ
जाओ ।
जाओ तुम सो जाओ
मैं तुम्हें
नहीं किसी और को बुला रही हूँ अगर
मेरी आवाज वहाँ तक पहुँचेगी तो वह जरूर उठेगा और मेरी आवाज थक
गयी तो? तो भी जिंदा लोग मेरी बात
वहाँ तक पहुँचाते रहेगे ।
वहाँ जहाँ जीने का मतलब सिर्फ नब्ज का चलना और फेँफङों का हवा खींचना
छोङना मात्र नहीं ।
वहाँ जहाँ सुख का मतलब पेट भर पकवान और नींद भर बिस्तर और देह भर देहभोग नहीं ।
वहाँ जहाँ अपनों का मतलब एक बिस्तर के नर-मादा और उनसे पैदा बच्चे नहीं ।
जहाँ समाज का मतलब एक जात एक इबादतख़ाना एक बुतखाना एक सभा नहीं ।
वहाँ हाँ वहीं पहुँचानी है मुझे अपनी आवाज़ ।
क्योंकि जिंदा क़ौम ही मुर्दों को ढो सकतीं हैं और जब तबाही आती है टूटते
हैं पहाङ सैलाब आते है दरियाओं में और समन्दर किनारे की मर्यादा भूल जाते
हैं तब
तब जब हर तरफ होती हैं लाशें ही लाशें और गीध काग सियार गीदङ उल्लू सङे
गले माँस को खाने के लिये तब ।
तब जब मरे हुये गूँगे बहरे ज़मीर को कंधों पर उठाये प्रेत भूत पिशाच नोंच
रहे होते हैं चमकीली धातुयें कीमती पत्थर और धन अदा करने के वचनपत्र वाली
कागज़ी मुद्रायें तब ।
मुट्ठी भर ज़िंदा लोग मेरी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाते हुये जलाने
दफनाने लगते हैं लाशें और उठा लाते है साँस खींचते छोङते फेफङों वाले
शरीर जिनकी नब्ज और धङकन चल रही होती है ।
तब सङाँध को रोकने के लिये पालते हैं मछलियाँ कछुयें और मेंढक । जिनका होना ।
तुमसे ज्यादा जरूरी है
क्योंकि प्रकृति की योजना में हर धङकती चीज का कोई न कोई समष्टिगत उपयोग जरूर है ।
और जो जो सृष्टि के समष्टिगत उपयोग की विराट योजना के मानचित्र में नहीं है ।
ये सृष्टि न उनकी है न उनके लिये है ।
कदाचित खाद बन जाते झरे हुये पत्तों और अपशिष्ट का भी हिस्सा है तो ऐसे
लोग जो किसी चीख पर चौंकते नहीं किसी हिलकी पर चौकने नहीं होते किसी
आर्त्तनाद की पुकार पर चल नहीं पङते ।
मृत अवशेष से भी कम महत्त्व के हैं क्योंकि जब उनको काटा जायेगा उनकों
कोंचा जायेगा जब उनके फूलते पिचकते दिल जकङ दिये जायेंगे और साँस खीचते
फेंफङों को घोंटा जाने लगेगा तब वे चीखेंगे ।
पुकारेगे और छटपटायेंगे किंतु उनको शायद कभी याद नहीं आयेगा कि ये
प्रतिबिंब तो उनका खुद का कैद किया हुआ है जो अब झलक रहा है । तो सो जाओ
तुम चैन से और पालो आराम से पेट परिवार और बच्चे पैदा करो जुटाते रहे देह
के सुख साधन ।
क्योंकि
किसी की भी कोई भी पुकार तुम्हारे लिये नहीं है ।
ना ही
मेरी कोई आवाज़ ।
चिढ़ो और चिङचिङाओ मत आदमी नाम के और भी प्राणी इस जंगल में रहते हैं ये
केवल तुम्हारा हुलिया और नाम है मैं उनको पुकार रही हूँ जिनकी नस्ल और
क़ौम है आदमी ।
©®सुधा राजे
नहीं उठे ।
जब घर में सिसकने की आवाजें गूँजी तुम नहीं उठे
जब खुद तुम्हारे हृदय में चीखने के स्वर गूँजे
तब भी तुम नहीं उठे!!!!!!
तो सुनो मेरी कोई भी पुकार तुम्हारे लिये
थी ही नहीं किसी की कोई पुकार तुम्हारे लिये हो सकती है
क्योंकि पुकारा सिर्फ़
जीवितों को जाता है और सुनकर सिर्फ वे
ही दौङ कर आते हैं जो हाथ पाँव कान और आवाज रखते हैं
ना होते हुये भी सुनने कहने देखने की दैहिक क्षमता के बावज़ूद वे सब
तुमसे बेहतर है जो दिमाग रखते नहीं केवल उसे इस्तेमाल भी करते हैं । उस
दिमाग और दिल की धधक और
धङक के साथ
जाओ ।
जाओ तुम सो जाओ
मैं तुम्हें
नहीं किसी और को बुला रही हूँ अगर
मेरी आवाज वहाँ तक पहुँचेगी तो वह जरूर उठेगा और मेरी आवाज थक
गयी तो? तो भी जिंदा लोग मेरी बात
वहाँ तक पहुँचाते रहेगे ।
वहाँ जहाँ जीने का मतलब सिर्फ नब्ज का चलना और फेँफङों का हवा खींचना
छोङना मात्र नहीं ।
वहाँ जहाँ सुख का मतलब पेट भर पकवान और नींद भर बिस्तर और देह भर देहभोग नहीं ।
वहाँ जहाँ अपनों का मतलब एक बिस्तर के नर-मादा और उनसे पैदा बच्चे नहीं ।
जहाँ समाज का मतलब एक जात एक इबादतख़ाना एक बुतखाना एक सभा नहीं ।
वहाँ हाँ वहीं पहुँचानी है मुझे अपनी आवाज़ ।
क्योंकि जिंदा क़ौम ही मुर्दों को ढो सकतीं हैं और जब तबाही आती है टूटते
हैं पहाङ सैलाब आते है दरियाओं में और समन्दर किनारे की मर्यादा भूल जाते
हैं तब
तब जब हर तरफ होती हैं लाशें ही लाशें और गीध काग सियार गीदङ उल्लू सङे
गले माँस को खाने के लिये तब ।
तब जब मरे हुये गूँगे बहरे ज़मीर को कंधों पर उठाये प्रेत भूत पिशाच नोंच
रहे होते हैं चमकीली धातुयें कीमती पत्थर और धन अदा करने के वचनपत्र वाली
कागज़ी मुद्रायें तब ।
मुट्ठी भर ज़िंदा लोग मेरी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाते हुये जलाने
दफनाने लगते हैं लाशें और उठा लाते है साँस खींचते छोङते फेफङों वाले
शरीर जिनकी नब्ज और धङकन चल रही होती है ।
तब सङाँध को रोकने के लिये पालते हैं मछलियाँ कछुयें और मेंढक । जिनका होना ।
तुमसे ज्यादा जरूरी है
क्योंकि प्रकृति की योजना में हर धङकती चीज का कोई न कोई समष्टिगत उपयोग जरूर है ।
और जो जो सृष्टि के समष्टिगत उपयोग की विराट योजना के मानचित्र में नहीं है ।
ये सृष्टि न उनकी है न उनके लिये है ।
कदाचित खाद बन जाते झरे हुये पत्तों और अपशिष्ट का भी हिस्सा है तो ऐसे
लोग जो किसी चीख पर चौंकते नहीं किसी हिलकी पर चौकने नहीं होते किसी
आर्त्तनाद की पुकार पर चल नहीं पङते ।
मृत अवशेष से भी कम महत्त्व के हैं क्योंकि जब उनको काटा जायेगा उनकों
कोंचा जायेगा जब उनके फूलते पिचकते दिल जकङ दिये जायेंगे और साँस खीचते
फेंफङों को घोंटा जाने लगेगा तब वे चीखेंगे ।
पुकारेगे और छटपटायेंगे किंतु उनको शायद कभी याद नहीं आयेगा कि ये
प्रतिबिंब तो उनका खुद का कैद किया हुआ है जो अब झलक रहा है । तो सो जाओ
तुम चैन से और पालो आराम से पेट परिवार और बच्चे पैदा करो जुटाते रहे देह
के सुख साधन ।
क्योंकि
किसी की भी कोई भी पुकार तुम्हारे लिये नहीं है ।
ना ही
मेरी कोई आवाज़ ।
चिढ़ो और चिङचिङाओ मत आदमी नाम के और भी प्राणी इस जंगल में रहते हैं ये
केवल तुम्हारा हुलिया और नाम है मैं उनको पुकार रही हूँ जिनकी नस्ल और
क़ौम है आदमी ।
©®सुधा राजे
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