Friday 7 February 2014

गीत-- पहली बार मंच पर।

Sudha Raje
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""चलो री गुईयाँ मिल-जुल
गुनकर पढ़ लें और पढ़ायें
चतुरई से घर-बार सँवारे
अक्षर दीप जलायें ।

पढ़ने से ही रूढ़ि प्रथाओं ।
की जंजीर कटेगी ।
पढ़ने लिखने से अँधियार
हटेगा पीर छँटेगी।
पढ़ने लिखने से ही सखियो
नई तकदीर बँटेगी
चलो चलें घर घर संदेशा
पढ़ने का पहुँचायें ।

चतुरई से घरबार सँवारें
अक्षर दीप जलायें ।

कह दो माँ से बाबुल से
पढ़ना है अभी बढ़ना है।
भारत की बेटी की नयी
तसवीर हमें गढ़ना है ।
बाँधो मत कंकन पायल
के बंध शिखर चढ़ना है।
अपने अपने पाँव खङे होकर
गुईयाँ दिखलायें ।

चतुरई से घर बार सँवारे
अक्षर दीप जलायें ।

पढ़ लेंगे हम तो उजियारा
बहिनों घर घर होगा ।
नहीं रहेगा दुख दरिद्र
ना शोषण का डर होगा ।
होगा ज्ञान सहारा अपना
देश गाँव घर होगा ।

अब अपने अधिकार और
कर्त्तव्य समझ समझायें।

चतुरई से घर बार सँवारे
अक्षर दीप जलायें

सुधा उमर बाली है बेटी
ना परदेश पठईयो ।
बिना ज्ञान अँधियारा जीवन
लंबी उमर बतईयो ।
कहो न बच्ची पर्दा बच्चे
घर ससुराल निभईयो ।

पढ़ने लेने दो 'विद्या वीरन
बहिनें विनय सुनायें
चतुरई से घर बार सँवारे
अक्षर दीप जलायें ।

©®सुधा राजे
मूल रचना एक वार्षिकोत्सव में
कक्षा सातवीं की छात्रा"
"
कुमारी सुधा राजा सूर्यवंशी "
के नाम से लिखकर फिर इसी पर स्वयं
भाव नृत्य किया था सितंबर अक्टूबर सन्
1979-80में स्थान घाटीगाँव
जिला ग्वालियर म.प्र ।
इस रचना से पहले की अस्फुट रचनायें
सखियों को पत्र होते थे जो हर बार
पिताजी का तबादला होने से बिछुङ
जातीं थी । कविता कक्षा छह से
शनिवारीय बाल सभा में कहनी प्रारंभ
की थी तब वहाँ स्कूल में एक आशुकवि आये थे
जिनको हम सबसे मिलवाया गया था नाम
तो याद नहीं सन् 1978-79की बात है
कवि ने धोती कुर्ता पहन रखा था और
कविता थी उनकी -

----देख तमाशा लकङी का
लकङी का भई लकङी का
पलने से श्मशान तलक है साथ
हमारा लकङी का --

बङी लंबी कविता थी । बाल मन पर
ऐसी छाप पङी कि फिर चुटकुले
कहानी रास नहीं आते और
सखियों भाभियों दीदियों को पत्र में
हर संदेश कविता में लिखने की आदत
सी हो गयी । किंतु तब ये
पता नहीं था कि कविता है क्या और कैसे
सँजोकर रखें ये कवितायें ।
लोकगीतों को गाने का शौक था किंतु नये
नये गीत कहाँ से लायें
सो बन्ना बन्नी सोहर दादरा सरल
अंतरा लगाने के साथ सुने हुये गीत के
ज़वाब में बनाकर लिखते दिन भर सोचते
और शाम की महिला मंडली में
नायिका बन जाते कि वाह
गुड्डो राजा बहुत सुंदर गाती हो कहाँ से
लाती हो नये नये गीत । अब अंदर
तो खुशी नाचती कि वाओ क्या गीत
रचा मगर इतना डर
भी लगता कि बच्ची ने रचा है सोचकर
कहीं कोई हँसी ना करे इसलिये
गायिका तो प्रसिद्ध रहे किंतु
कवियत्री भी हम ही हैं ये
काफी दिनों बाद पोल खुली ।
पहला भाषण मद्यनिषेध पर था 1980में
तब मन ही मन कहीं शराब से
तीखी नफरत थी जो ज्यों की त्यों कह
डाली वही पहली बार अखबारों में नाम
छपा और यही पहला मौलिक लेख था ।
कक्षा छह में कुछ बीटीआई शिक्षक आते थे
दतिया लक्मीबाई स्कूल में जो ट्रेनिंग कर
रहे थे उनमें ही कुछ शिक्षक प्रश्नोत्तर
रोचक तरीके से पूछते थे
कि पढ़ना अच्छा लगता और निबंध तब से
रटे कभी नहीं । फिर तोमर सर ने
कक्षा सात में निबंध क्या है और कैसे
लिखा जाता है समझा दिया तो फिर
तो हर औसत विषय पर निबंध तत्काल
लिख डालने की आदत हो गयी किंतु
रचनायें सहेजना तब
नहीं आता था क्योंकि पता ही नहीं था कि हम
कुछ मौलिक लिख रहे हैं और यह कोई
साहित्य है । पढ़ना ज़ान बचाने के लिये
जरूरी था बस क्योंकि घर में तब सब
लङकियाँ लगातार घरेलू कार्यों में कुशल
बनाने की कार्यशाला चलती थी स्कूल
मुक्तिधाम होते थे । अस्तु कह सकते हैं
कि यह पहली रचना भी जिसके कुछ अंश
भूल गये हैं क्योंकि लंबागीत था जिसपर
नृत्य करना और गाना ये सब हमने स्वयं
किया । जो साथ की लङकियाँ थीं ढोलक
पर और आवाज में सुर मिलाने को उनमें से
अधिकांश का विवाह
आठवीं की परीक्षा देते
ही हो गया था और हमारे घर भी तब
हमारी पाँचवीं की परीक्षा पास करते
ही विवाह की बातें चलने लगीं थीं सबने
सोच लिया था बस आठवीं कराके घर
बिठा देना है । मन में भय और रेडियो पर
स्त्री शिक्षा के प्रचार लिये एक
सपना पल रहा था हम हायर
सेकेन्ड्री करेंगे ।
जबकि परिवार तो हमारा विवाह हमारे जन्म के भी पहले तय कर चुका था जिसकी
जानकारी हमें थी ही नहीं ।

सातवीं कक्षा में ही शाम
का पूरा भोजन हमें पकाने की ताकीद
थी कि लङकी हो गृहकारज सीखो अब
ससुराल जाना है ।
आज सब अविश्वसनीय सा लगता है
कि हमने दसवीं कक्षा पंद्रह साल की आयु
से ही उत्सवों में साङी पहिननी शुरू कर
दी थी कौटुम्बिक उत्सवों में तब सब
लङकियाँ यही करती थीं ।तब पढ़ना जैसे
याचना प्रार्थना और
हाहाकारी अरमान
ही था लङकियों का । सिलाई कढ़ाई
बुनाई रोटियों और घरेलू कलाओं
की निपुणता प्राप्त करने की शर्तों के
बाद सबकी सेवा के बाद बचे समय में पढ़ने
की शर्त पर पढ़ना। हमारे लिये तब एक
असंभव कल्पना थी कि कभी हम हाईकोर्ट
के क्रिमिनल लॉयर का कोट पहनेगे
या एम ए एल एल बी एम जे एम सी करेगे ।
किंतु मन गंभीर चिंतन में
रहता कि क्या करें
कि पढ़ना ना रोका जाये । तब दरजन
भर बढ़े भाई हर समय निगरानी पर रहते
और दरजन भर बङी महिलायें चौकसी पर
दुख था कहीं गहरे बगावत के बीजों के
साथ
कि क्यों लङकियाँ इतनी जल्दी स्कूल
माँ बाप घर छोङ दें । तब ये गीत
आठवीं की सीनियर लङकियों की विदाई
पार्टी के लिये आयोजित वार्षिकोत्सव
में किया गया गया जिन में से अधिकतर
लङकियाँ सगाई की चूङियाँ पहन
चुकीं थीं । हमारी भाभियाँ तक पंद्रह
सोलह साल की थीं और माँ बन चुकीं थीं ।
कठिन हालात परदा और ससुराल
का आतंक एक कमजोर सी आशा पढ़ाई तब
लगता था अगर पास होते रहेगे तो स्कूल
नहीं छुङाया जायेगा और जितनी देर
स्कूल उतनी देर गृहकारज
की प्रशिक्षणशाला से मुक्ति।तलवार की धार पर चलना था लङकियों का पङना
मामूली शिकायत और पढ़ाई छुङाकर शादी कर दी जाती लंबे घूँघट साङी और
चादरों का जमाना था । तब टीवी मोबाईल और लैपटॉप नहीं थे ।
©®सुधा राजे
13 minutes ago
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