मातृ धर्मा दूर्वा।

दूर्वा हूँ वृक्ष झंझावात् में गिरते रहेंगे ।
ओंस पीकर प्यास लेकर पग तले
बढ़ती रहूँगी
एक नन्हा बीज हूँ जैसे महामंत्रित परम ।
अल्पतम् भी आर्द्र होकर नित शिखर
चढ़ती रहूँगी ।
जब कहीं संधान को निकली तो केवल
आत्मबल ।
नित नये लघुतम सरल प्रतिमान मैं
गढ़ती रहूँगी ।
चेतना हूँ सूक्ष्मता अणुशक्ति ज्यों औंकार
हूँ ।
जगविशद् प्राकार पर झरती सतत्
मढ़ती रहूँगी ।
मात्र कविता मंद्रगीतों में सरल गांधार
सी
हूँ सुधा मन सिंधु पी पी कटु गरल
लङती रहूँगी।
कंटकों पर आच्छादित हूँ श्रमिक की नींद
को ।
पग चुभे प्रस्तर जटिल पर लोम
सी जङती रहूँगी ।
सूखने पर भी विहँगों के लिये प्रिय नीङ
सी ।
भूख मैं आहार तृणचर के लिये
झङती रहूँगी ।
एक पोरी तृण कहीं पङ जायोगा जीवित
पुनः ।
मैं पुनर्नव रूप से हर जन्म मैं
कढ़ती रहूँगी ।
स्वप्नदृष्टा हूँ अखिल ब्रह्माण्ड मेरा गेह
ज्यों ।
देवता के भाल कर मैं स्वस्ति रव
वपढ़ती रहूगीँ
चिर विरह का गीत हूँ मैं चिरमिलन के
गाँव में ।
उत्प्लवन भू भार मिट्टी बाढ़
को अङती रहूँगी ।
काय वाचन रूप रस सर्वस्व परहित कर्म
को ।हो हरी मरकर कहीं उर्वर
धरा सङती रहूँगी
मैं इला की कोख में वनसंपदा का सार हूँ
नारि हूँ मातृत्वधर्मा काल दृग
पङती रहूँगी ।
©®सुधा राजे ।

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