वैदेही हूँ मैं

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Sudha Raje
ये वृक्ष हैं अशोक के सशोक मन
की शांति को ।
पुहुप ये चम्पका के है
न विश्व की विभ्रांति को
तू व्यर्थ कूकती अहे ।
अनल अगम निहारते
तू जारी जारी कोकिले!!! रसाल
द्रुम पुकारते।
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Sudha Raje
ये वाटिका है
योगिनी की साधना का कुंज है ।
तू आम्रपुञ्ज पालिते भ्रमर
सुमन
गुँजारते ।
तू जा री जा री कोकिले?!!!
रसाल द्रुम पुकारते ।
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Sudha Raje
न हेतुमान प्रेम हृष्टि प्रावृषा न
वेदना ।
निकष विपुल सनेह
युक्ति कामना न प्रार्थना ।
तू मारशर के गीत आ
गयी कहाँ उचारते!!!!
तू जा री जा री कोकिला
रसाल द्रुम पुकारते ।
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SUDHA RAJE
सदा हरित् ये वन ये मन न ऋतु न
राग त्याग है ।
तू अनंग रंग ये विहाग अग्नि राग
है ।
अपर्ण व्रत सुधा कनक फणिक वलय
विहारते
तू जा री जा री कोकिले
रसाल द्रुम पुकारते ।
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Sudha Raje
Dta/Bjnr
Apr
10 ·

Comments

  1. खुर्शीद अनवर2 May 2013 at 09:00

    हमेशा की तरह झाझकोरने में सक्षम. उम्दा अभिव्यक्ति , सुधा जी

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