सुधा राजे की तीन कवितायेँ।
विस्थापित कश्मीरियत बात करते हो हिमालय की नयन में नीर है
न्याय की दहलीज बैठा रो रहा कश्मीर है ....स्वर्ग से सुन्दर धरा को लग गयी किसकी नज़र
झील तालों पर्वतों गांवों नगर में था जहर
काल की कर्कश पुकारों पर सिसकता धीर है
न्याय की दहलीज बैठा रो रहा कशमीर है
स्त्रियों पर गीध लाशों पर वो मानव थे कि क्या
पर्वतों को किस कदर लग गयी सियासत की हवा
छोड़ गये जलते दिये घर ताकते शहतीर है
न्याय की दहलीज बैठा रो रहा कशमीर है
एक थाली इक दिवाली ईद राखी होलियां
इक मुहल्ला था चलायीं क्यों गयीं फिर गोलियां
बेबसों को कत्ल करके सोचता रणवीर है
न्याय की दहलीज बैठा रो रहा कशमीर है
ये लहू जिन जिन के हाथों पर लगा वो सब के सब
पीढ़ियों तक पाप के भागी रहेंगे अब कि तब
जब क़यामत हो कि होगा फैसल -ए -तक़दीर है
न्याय की दहलीज बैठा रो रहा कशमीर है
घाव ये कैसे भरेंगे दर्द कैसे हो ये कम
झुक गयी अन्याय के ही पक्ष में कुंठित कलम
हो गयी क़ातिल के हित में बिक चुकी तहरीर है
न्याय की दहलीज बैॆठा रो रहा कशमीर है
कश्मीर की पीर कागज से ,भरभरा लिपट कर ,
कलम रो पड़ी हम
भी
रोये इतना दर्द लिखूँ तो कैसे ,
अक्षर अक्षर लहू डुबोये ,
चीखों से बिलबिला रहा था,
आसमान धरती हिलती थी
जिधर नजर जाती थी केवल
कोरी मानवता जलती थी ।
कोई बचाता नहीं किसी को
पिघले पर्वत पीर सँजोये
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे ......
हिमगिरि तक जल गया रात भर,
चिता जली थी मानवता की
जहर दे दिया बेटी को फिर ,
लोरी गायी थी ममता की
सूखे नहीं तभी से आंसू ,
पोर पोर में व्यथा भिगोये
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे .......
केसर की क्यारी झीलों की
नगरी सरस्वती का दर घर
लहू लहू हो गयी चिनाब भी
डगर डगर वहशत थी झर झर
बिलख पड़े सब महल झोपड़े
सूने गांव गये दुख बोये
इतना दर्द लिखू तो कैसे ......
समाचार पत्रों कहानियों
चित्रों में खबरें ना चिट्ठी
हर चौराहे कातिल बैठे
गली गली थी भीड़ इकट्ठी
छोड़ो घर कश्मीर चीखती
वादी में परिवार न सोये
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे ..........
गज भर कफन न थाली भर
चावल था किसके दर जाते ?
महल हवेली वाले रह गये
बस दर दर ठोकर खाते
कुलदीपों के छिन्न भिन्न
क्षत -विक्षत अंग गये खोये
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे .....
किस सहिष्णुता की दुहाई
देते हो बोलो समझाओ ?
पागल स्मृतिहीन हुये जो
उनके परिजन लौटाओ
इस गुनाह में सने हुये वे
हाथ कहाँ अब तक धोये
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे ......
क्या बोलो अपराध मार डाले
गये लोगों का निकला
पराकाष्ठा बर्बरता की थी
या मजहब का बदला
?
जो हो गये निर्वंश उजड़ गये
बेघर आँसू गये पोये
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे
अक्षर अक्षर लहू डुबोये
क्यों इतनी बर्बरता क्यों ये रक्तपात आतंक हुआ
प्रश्न करें वीरान खंडहर
उत्तर में बस मूक दुआ !!बहुत हो चुकी पक्षपात की बात
न्याय का पथ जोए ,
इतना दर्द लिखूँ तो कैसे .....
लगी लहू की हाय
वेदना के वे चरम अध्याय पढ़कर रो पड़े मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े
कल वहां जो पर्वतों के साथ हँसते थे नगर
कल वहाँ जो झील के मन्दिर किनारे थी डगर
कल वहां जो खिलखिलातीं लड़कियां थी नाव पर
उनके रक्तिम अंत का अभिप्राय पढ़कर रो पड़े
मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े
क्यों पड़ौसी बंधु भाई मित्र हो गये काल यूँ
धर्म ने मजहब से बदला क्यूँ लिया विकराल यूँ
भूल ही गये पूर्वजों के गोत्र नाते जाल यूँ
गूँजते नारे "नगर से जाय" पढ़कर रो पड़े
मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े ,
स्त्रियाँ बालक धरा संबंध जन्मों के गये
तोड़ कर नाते जड़ों से सूखते पौधे नये
वे गुलाबी खूबसूरत लोग जो घर से गये
खंडहर हो गये
लगी वो हाय पढ़कर रो पड़े मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े
यातनाओं के चरम पर चीखते स्वर थम चुके
रक्त के नाले नहर नदियाँ भले ही जम चुके
खंडहर श्मशान वीरानों के सुर मद्धम चुके
कूकती वादी हुयी मृतप्राय पढ़कर रो पड़े
मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े
पाप प्रायश्चित्त के ही आँसुओं से घुल सके
कौन रोयेगा वो आँसू रक्त जिनसे धुल सके टूट गये विश्वास डोरी गाँठ कैसे खुल सके
मूक हैं क्यूँ लोग यूँ मुख बाय पढ़कर रो पड़े
मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े
©®सुधा राजे
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