सुधा राजे की कविता:- मैं सिर्फ कविता के लिए।
मेरे सिरहाने वाली दराज में कुछ प्रेमगीत रह गये हैं
रखे हुये ,और पैताने वाली चादर के नीचे एक पत्र
अनपहुँचा ,कभी सोचा था तुम पढ़ोगे
और मैं तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर सुनूँगी ,
अपने ही लिखे को किसी अपने से सुनना
एक नन्हा सा ही तो सपना था ।
पन्ने पुराने और पीले हो गये हैं
पत्र की स्याही जगह जगह से मिट गयी है ,
सच कहते हैं सब
स्त्री बस सपने देखती है
और रो देती है ,
अब न इन्हें जला सकती हूँ
न ही सिला सकती हूँ
सच कहते हैं सब तो
कविता भावुक पागलपन या
मूर्खता से अधिक कुछ नहीं ,
अब मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ ,
ये अनदेखे अनपढ़े पीले धुँधले अक्षर
पता नहीं क्यों न जलाये जा रहे हैं
न ही सिलाये जा रहे हैं
और मैं इन्हें यूँ ही रहने भी नहीं देना चाहती फिर भी
, हर बार बस यूँ ही बिन पढ़े रख देती हूँ
एक कोरी भावुकता को ,
यथार्थ की दराज में
हकीकत के सिरहाने
और चुप सोचती हूँ
कविता से मेरा नाता कितना बदल गया है ,
,,,,,,,,पहले कविता तुम्हारे लिये थी ,,,,,,,
और अब मैं सिर्फ कविता के लिये हूँ ,.,........
©®™सुधा राजे
रखे हुये ,और पैताने वाली चादर के नीचे एक पत्र
अनपहुँचा ,कभी सोचा था तुम पढ़ोगे
और मैं तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर सुनूँगी ,
अपने ही लिखे को किसी अपने से सुनना
एक नन्हा सा ही तो सपना था ।
पन्ने पुराने और पीले हो गये हैं
पत्र की स्याही जगह जगह से मिट गयी है ,
सच कहते हैं सब
स्त्री बस सपने देखती है
और रो देती है ,
अब न इन्हें जला सकती हूँ
न ही सिला सकती हूँ
सच कहते हैं सब तो
कविता भावुक पागलपन या
मूर्खता से अधिक कुछ नहीं ,
अब मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ ,
ये अनदेखे अनपढ़े पीले धुँधले अक्षर
पता नहीं क्यों न जलाये जा रहे हैं
न ही सिलाये जा रहे हैं
और मैं इन्हें यूँ ही रहने भी नहीं देना चाहती फिर भी
, हर बार बस यूँ ही बिन पढ़े रख देती हूँ
एक कोरी भावुकता को ,
यथार्थ की दराज में
हकीकत के सिरहाने
और चुप सोचती हूँ
कविता से मेरा नाता कितना बदल गया है ,
,,,,,,,,पहले कविता तुम्हारे लिये थी ,,,,,,,
और अब मैं सिर्फ कविता के लिये हूँ ,.,........
©®™सुधा राजे
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