सुधा राजे का लेख :-(खरी - खरी) ---"""नेपथ्य में""
अच्छा?!!!!!!!!!!
तो ये लेखकों की बुराई है???
कैसे भला?
जो भी थोङा या घना लिखता और
पढ़ता सुनता रहा हो ',जिसे भी कवि
सम्मेलन लेखक सम्मेलन और मंच के देखने
सुनने का जरा सा भी अनुभव है वे सब
जानते हैं कि """"
ऐन मंच पर ही ठीक परदे के पीछे ही
क्या क्या चल रहा होता है ।
सब तो नहीं भले ही दो पाँच दस
प्रतिशत हों लेकिन अनेक ',
लेखक पत्रकार और ""अक्षरजीवी ""
ऐबी है
शराब कबाब और सुगरेट नशा साथ साथ
हो सका तो झरोखा दर्शन भी ।
इस माहौल को बहुत करीब से देखा है
',एक तो पद्मश्री महोदय को देखा जो
स्टेज पर ही धुत्त लुढ़क पङ रहे थे और
सिगरेट!!!!! तौबा लगातार इतवा धुँआ
कि आखिर कार हम और कुछ उस समय की
नवोदित कलमजीवी महिलाएँ दूसरे दौर
के काव्यपाठ तक रुकने से ही झिझक गयीं
और वापस लौट गयीं ।
कौन नहीं जानता कि ''''बंद लिफाफे अब
नहीं चलते अब पारिश्रमिक तय रहते हैं
और कई ''कवि लेखक तो ''अपनी दो चार
गिनी गिनीयी रचनायें ही बार बार
बार बार मंच पर शहर दर शहर सुनाते
रहते हैं ।
नया लेखन 'अनेक बार दबकर रहजाता है
।
वरिष्ठता के घमंड में 'अवसर ही नहीं देते
अनेक साजिशें उस नवीन लेखक की रचना
पैरोडी चोरी या आईडिया तक चनराने
की चलती रहतीं हैं ।
कई बार तो रचना "किसी दूसरे गुमनाम
लेखक की 'लाईन पर डेवलप्ड होती है ।
लेखक या पत्रकार शराब नहीं पी सकते
ऐसा कोई कानून नहीं
किंतु
परउपदेश कुशल बहुतेरे """""
वाली हालत भी तो ठीक नहीं!!!!
इस शराब सिगरेट का इतना उबकाऊ
माहौल कई बार देखना को मिला कि
परिजन बङे साथ न होते तो 'कभी हम
मंच पर जा ही नहीं पाते!!!
आज अगर मंच छोङकर अज्ञातवास पर हैं
तो वजह यही मंच का नेपथ्य है जहाँ
बिना महिलाओं की उपस्थिति की
परवाह किये, 'धुआँ और दुर्गंध फैलाने वाले
समाज को दिशा और संवेदना देने चल
पङते हैं ।
कहने वाले कह सकते हैं कि मंच से रचना
पढ़ने के बाद
कौन क्या खाता पीता है कहाँ जाता
क्या करता है किसी को कोई मतलब
नहीं!!
परंतु क्या वाकई??
नियम तो यही होना चाहिये कि "
कविसम्मेलन और साहित्य सभायें
सेमिनार
जब तक चलें और जितने समय एक "अतिथि
रूप में लेखक वहाँ मौजूद रहे उतनी देर
नशा शराब गुटखा तंबाकू चिलम भाँग
सिगार सिगरेट बंद रहनी चाहिये ।
आयोजक के पैसे से हो निजी खीसे से 'नशा
बंद रहना चाहिये ।
सिनेमा कलाकारों की तरह ही
साहित्यकार भी पब्लिक फिगर होते हैं
और फैन पाठक श्रोता उनको मानते हैं
पूजते हैं ।
जैसा आचरण उनका प्रिय लेखक या कवि
करता है "वैसा ही आचरण जाने अनजाने
उनका पाठक करने की कोशिश करता है
।
बचपन में हम स्वयं 'चुरुट या सिगार देखते
तो पीने का मन करने लगता 'घर पङौस
के बङों के डर से ऐसा किया नहीं परंतु '
एक महान कहानी पत्रिका के
नामधारी संपादक उपन्यासकार को जब
पाईप पीते देखा तो अधकच्चे मन में आया
तो था कि """बढ़िया लेखन का मतलब
''जाम सिगार पाईप धुँआ भरी जिंदगी
होता है "
ये
सब लिखते समय किसका मूड किस बात से
बन रहा है वही जाने कोई चाय कॉफी
तक नहीं लेता तो कोई लहातार चेन
स्मोकर है ।
किंतु सवाल वहाँ खङा होता है जब कोई
ये कबे कि "मंच या सम्मेलन के आयोजन
गोष्ठी के पीछे पीने पिलाने की
"व्यवस्था करो!!!!!!
कम से कम हम निजी तौर पर ऐसे
पियक्कङपन के सख्त खिलाफ है यह
कदाचार की श्रेणी में होना चाहिये ।
हिंदी विकास की बात करते है हिंदी
की "आत्मा सत्य मौलिकता और
अनुशासित आचार ही तो है ।
कबीर रैदास सूरदास तुलसी भूषण केशव
कौन सा ठर्रा पीते थे??????
नशा
व्यक्ति की निजी कमजोरी है
धूम्रपान एक गंदी ऐब है
और घर के बाहर कहीं भी ऐसा
करनेवाला गलती ही कर रहा है चाहे
बहाना कुछ भी ले ।
तिस पर यदि वह समाज का दिग्दर्शक
वर्ग यानि लेखक पत्रकार होकर अपने
घर से बाहर शराब सिगरेट पीता है तो
""वह दोमुँहा सर्प है जो कहता बङी
बङी आदर्श की बाते है "करता गलत है "
ऐसे लोग मंच पर बुलाये ही नहीं जाने
चाहिये जो "नशा करें "धूम्रपान करें और
स्त्रियों की उपस्थिति में अश्लील
हरकतें करें गंदे कविता चुटकुले संवाद पढ़े
और संस्कृति के खिलाफ आचरण करें ।
भले ही उनको करोङों रुपया किताबें
छपने से मिल रहा हो ।
सच
कङवा होता है और कङवा हर किसी के
बस की बात नहीं '।
जिन लेगों का असर पब्लिक पर पङता है
उनकी हर छोटी बङी बात मायने रखती
है
उनका हर बात व्यवहार ऐसा होना
चाहिये कि लोग आचरण में ढालें को
समाज सुधार हो
©®सुधा राजे
तो ये लेखकों की बुराई है???
कैसे भला?
जो भी थोङा या घना लिखता और
पढ़ता सुनता रहा हो ',जिसे भी कवि
सम्मेलन लेखक सम्मेलन और मंच के देखने
सुनने का जरा सा भी अनुभव है वे सब
जानते हैं कि """"
ऐन मंच पर ही ठीक परदे के पीछे ही
क्या क्या चल रहा होता है ।
सब तो नहीं भले ही दो पाँच दस
प्रतिशत हों लेकिन अनेक ',
लेखक पत्रकार और ""अक्षरजीवी ""
ऐबी है
शराब कबाब और सुगरेट नशा साथ साथ
हो सका तो झरोखा दर्शन भी ।
इस माहौल को बहुत करीब से देखा है
',एक तो पद्मश्री महोदय को देखा जो
स्टेज पर ही धुत्त लुढ़क पङ रहे थे और
सिगरेट!!!!! तौबा लगातार इतवा धुँआ
कि आखिर कार हम और कुछ उस समय की
नवोदित कलमजीवी महिलाएँ दूसरे दौर
के काव्यपाठ तक रुकने से ही झिझक गयीं
और वापस लौट गयीं ।
कौन नहीं जानता कि ''''बंद लिफाफे अब
नहीं चलते अब पारिश्रमिक तय रहते हैं
और कई ''कवि लेखक तो ''अपनी दो चार
गिनी गिनीयी रचनायें ही बार बार
बार बार मंच पर शहर दर शहर सुनाते
रहते हैं ।
नया लेखन 'अनेक बार दबकर रहजाता है
।
वरिष्ठता के घमंड में 'अवसर ही नहीं देते
अनेक साजिशें उस नवीन लेखक की रचना
पैरोडी चोरी या आईडिया तक चनराने
की चलती रहतीं हैं ।
कई बार तो रचना "किसी दूसरे गुमनाम
लेखक की 'लाईन पर डेवलप्ड होती है ।
लेखक या पत्रकार शराब नहीं पी सकते
ऐसा कोई कानून नहीं
किंतु
परउपदेश कुशल बहुतेरे """""
वाली हालत भी तो ठीक नहीं!!!!
इस शराब सिगरेट का इतना उबकाऊ
माहौल कई बार देखना को मिला कि
परिजन बङे साथ न होते तो 'कभी हम
मंच पर जा ही नहीं पाते!!!
आज अगर मंच छोङकर अज्ञातवास पर हैं
तो वजह यही मंच का नेपथ्य है जहाँ
बिना महिलाओं की उपस्थिति की
परवाह किये, 'धुआँ और दुर्गंध फैलाने वाले
समाज को दिशा और संवेदना देने चल
पङते हैं ।
कहने वाले कह सकते हैं कि मंच से रचना
पढ़ने के बाद
कौन क्या खाता पीता है कहाँ जाता
क्या करता है किसी को कोई मतलब
नहीं!!
परंतु क्या वाकई??
नियम तो यही होना चाहिये कि "
कविसम्मेलन और साहित्य सभायें
सेमिनार
जब तक चलें और जितने समय एक "अतिथि
रूप में लेखक वहाँ मौजूद रहे उतनी देर
नशा शराब गुटखा तंबाकू चिलम भाँग
सिगार सिगरेट बंद रहनी चाहिये ।
आयोजक के पैसे से हो निजी खीसे से 'नशा
बंद रहना चाहिये ।
सिनेमा कलाकारों की तरह ही
साहित्यकार भी पब्लिक फिगर होते हैं
और फैन पाठक श्रोता उनको मानते हैं
पूजते हैं ।
जैसा आचरण उनका प्रिय लेखक या कवि
करता है "वैसा ही आचरण जाने अनजाने
उनका पाठक करने की कोशिश करता है
।
बचपन में हम स्वयं 'चुरुट या सिगार देखते
तो पीने का मन करने लगता 'घर पङौस
के बङों के डर से ऐसा किया नहीं परंतु '
एक महान कहानी पत्रिका के
नामधारी संपादक उपन्यासकार को जब
पाईप पीते देखा तो अधकच्चे मन में आया
तो था कि """बढ़िया लेखन का मतलब
''जाम सिगार पाईप धुँआ भरी जिंदगी
होता है "
ये
सब लिखते समय किसका मूड किस बात से
बन रहा है वही जाने कोई चाय कॉफी
तक नहीं लेता तो कोई लहातार चेन
स्मोकर है ।
किंतु सवाल वहाँ खङा होता है जब कोई
ये कबे कि "मंच या सम्मेलन के आयोजन
गोष्ठी के पीछे पीने पिलाने की
"व्यवस्था करो!!!!!!
कम से कम हम निजी तौर पर ऐसे
पियक्कङपन के सख्त खिलाफ है यह
कदाचार की श्रेणी में होना चाहिये ।
हिंदी विकास की बात करते है हिंदी
की "आत्मा सत्य मौलिकता और
अनुशासित आचार ही तो है ।
कबीर रैदास सूरदास तुलसी भूषण केशव
कौन सा ठर्रा पीते थे??????
नशा
व्यक्ति की निजी कमजोरी है
धूम्रपान एक गंदी ऐब है
और घर के बाहर कहीं भी ऐसा
करनेवाला गलती ही कर रहा है चाहे
बहाना कुछ भी ले ।
तिस पर यदि वह समाज का दिग्दर्शक
वर्ग यानि लेखक पत्रकार होकर अपने
घर से बाहर शराब सिगरेट पीता है तो
""वह दोमुँहा सर्प है जो कहता बङी
बङी आदर्श की बाते है "करता गलत है "
ऐसे लोग मंच पर बुलाये ही नहीं जाने
चाहिये जो "नशा करें "धूम्रपान करें और
स्त्रियों की उपस्थिति में अश्लील
हरकतें करें गंदे कविता चुटकुले संवाद पढ़े
और संस्कृति के खिलाफ आचरण करें ।
भले ही उनको करोङों रुपया किताबें
छपने से मिल रहा हो ।
सच
कङवा होता है और कङवा हर किसी के
बस की बात नहीं '।
जिन लेगों का असर पब्लिक पर पङता है
उनकी हर छोटी बङी बात मायने रखती
है
उनका हर बात व्यवहार ऐसा होना
चाहिये कि लोग आचरण में ढालें को
समाज सुधार हो
©®सुधा राजे
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