सुधा राजे की एक अकविता :-"निर्वीरा"।

मिताक्षरा '
यूँ ही बैठ जाती है
कभी कभी टूटी हुयीं सीढ़ियों के पास छत पर जाने की आदतवश
और एक पल चुरा लेती है जीवन का
नभ को छूने की ललक तो
कब की बीत गयी
अब तो छत भी उसके पाँवों से
हर बार सतरह पग दूर ही रह जाती है ',
बह जाती सीपियों सी आँखों में बंद मोती की माला
और रह जाते हैं खारे सिंधु में सद्य़स्नात नेत्र
डूबते सूर्य को निहारते '

'कोई नहीं पूछता कैसी हो तुम!
कहाँ वह खुद भी पूछ पाती है थकी हुयी रीढ़ से
जिस पर ढोये हैं नौ नौ महीनों तक लगातार बँधे पत्थर
और काटदिये अपने रीढ़ के टुकङे हर बार
कंठ तक ठूँसी गयी ओढ़नी में बँधी चीखों के साथ,
'रह गये निर्निमेष पल
और ठहर गयी पुतलियों के पीछे पथराया मन,
बाँध बाँध कर कितनी रेत डाली
और कितना डाला मन मन माटी
मन मन भर हृदय का होता रहा पाषाण भंडार
फिर भी कगार को बहा ही ले गया जलप्लावन '
सूखे रह गये सावन और गीले कब हो सके फागुन
आशा और विश्वास की परवरिश में ही रीत गये सपने
और बीत गयी भोर '
रह गया सूनी दोपहर का 'धू धू जलता शोर ।
और कब की सब उद्गतियाँ
हटा कर खंड खंड मलबे में बदल चुकीं सीढ़ियाँ '
अब तो कौन चढ़े छत पर
चुनौती देती हैं नयी पुरानी पीढ़िया ।
पाँव से "निपक 'गयी कब गयी रुपहली पायल
और कंगन कब चढ़ा हाथ में बिना कलाई को किये किंचित घायल ",

करेगी भी तो क्या अब छत पर जाकर मिताक्षरा "
वहाँ कोई भी तो अपना सपना न रहा
कोई महकती मोगरे की बेल का आसरा
रह गये ठूँठ हुये कर पग और काया
काठ की पिटारी में बंद लोध्र रंग कबके सूख चुके हैं
सूखे रक्त की तरह
'कोई इतना अकेला होकर आकाश देखे भी तो किस तरह,
कई दशकों के बाद बनती है कहने को एक सदी '
"निर्वीरा "
हूँ मैं जैसे मरुस्थल में अंतःसलिला हो गयी एक विषपायनी नदी?
थी तो मैं भी कभी सदानीरा
©®सुधा राजे


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