कङवे सत्य विषैले घूँट ।

घर में चहल पहल थी बङे
दाऊ सा
का विवाह था और
मेहमानों का ताँता लगा हुआ
था जो पुरानी परंपरा के
अनुसार कई दिन पहले से आ
जाते थे और कई दिन बाद
तक रूकते थे
परंपरा थी कि सभी मानदान
अर्थात् बुआ बहिन
भतीजी भांजी बेटियाँ ""शगुन
डलिया""लेकर लग्न लिखे
जाने के पहले ही आ जायें
और ये भी नियम
था कि एक चंद्रपक्ष में लग्न
चढ़ाते तो विवाह दूसरे
चंद्रपक्ष में
ही होता था "सीधा छूने
से अर्थात् सात
कन्या सात
सुहागिनों द्वारा सात
अन्न सात सूप
छलनी टोकरी कलशों में
साफ करके रखने से विवाह
भोज
की तैयारियाँ होती गेँहू
चने चावल सब धोये सु
खाये जाते
हर समय रसोईघर में भोजन
पकता रहता हर समय
महिलायें गीत
गातीं रहती हर रस्म के
विशेष गीत विशेष धुन
बुंदेली परंपरायें और
अलका पुरी हो जाता घर
लङकियों को होश
ही नहीँ मिलता सिर्फ
फलानी राजा रज्जू
फलाने को जल
पहुँचवा दीजिये
कामगारों की हालत पस्त
भी मौज भी कि हर तरफ
से निछावर
घङी घङी रूपया और हर
अतिथि के लिये स्वागतम्
कलश लेकर खङे होने पर नकद
रुपया और उबटन मालिश से
मिलते वस्त्र
हम सब बेहद प्रसन्न कि एक
करीबी रिश्तेदार भाई
भाभी मेहमान आ गये
जो हमेशा आते रहते थे और
विशेषकर रक्षाबंधन भाईदूज
पर उनकी अपनी कोई
सगी बहिन नहीँ थी पाँव
छूते और पैसे देते हमें
पता नहीँ क्यों कुछ
दयाभाव भी था लगभग
पंद्रह वर्ष बङे रहे होंगे आयु में
कुछ वर्षों से हमें एक
परिवर्तन लग
रहा था कि हमारी पीठ
बाँहें पैर अक्सर वे बंधु विशेष
स्पर्श से छूते हैं
हम तब कवि रूप में एक मंचीय
हस्ती हो चुके थे
हाँलाकि तब मात्र
हाईस्कूल किया था हमें
भीङ से कुछ देर बाद ऊब
हो जाती है सो जब सब
लोग तिलकोत्सव
वाली शाम पंडाल में थे हम
तीसरी मंजिल पर अपने बङे
निजी शय़नकक्ष में आ गये
और उंनीदे हो गये कदाचित
आसपास कोई
नहीँ था
तभी चेहरे पर
दाङी के बाल चुभे
बुरी तरह हमारे हाथ जकङे
हुये वही चेहरा
मेरे चेहरे से
अपने चेहरे को रगङने
की कोशिश में पागल
वहशी!!!
हम चौंके परंतु यकीन
करना मुश्किल था ये
वही हाथ हैं जिनपर चार
साल की आयु से
राखी बाँधी!!
माँ की सख़्त ताक़ीद
रहती तलवार सिरहाने
कुल्हाङी द्वार पीछे और
लुहाँगी कोने में बंदूक
उसदिन
पूरी ताकत से धकेलकर
कुल्हाङी उठायी
हजारों मेहमान भाई पर
अभी 307चल
रही थी
!!
कहीँ खून
खराबा ना हो
लङकी वाले
बसभऱ कर आये हैं
पैर पकङ
लिये उस घिनौने जीव ने
।।जा और
कभी हमारी नजर के आगे न
आना
कई बरस बाद
माँ को बताया माँ अंगारा हो गयीँ
फिर
शाबास मेरे शेर पुत्तर कह कर
रो पङी
लाशें गिर
जातीँ हैं लङकियों के होंठ
यूँ सिले रहते हैं
दुख तो है रिश्तों से यकीन
उठने का
©®¶©®¶
sudha Raje

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