सुन मेरे देश, सुधा राजे का लेख:- भीङ हिंदू नहीं होती।
भीड़ हिंदू नहीं होती ,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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एक सीधा सादा प्रश्न है कि यह "माॅबलिंचिंग "शब्द आया कहां से है ?भारतीय
भाषा में यदि अनुवाद करना पड़े तो पूरा एक वाक्य ही गढ़ना पड़ेगा ।पहले
से ही व्याख्यायित शब्द सदा मूल स्थान में ही होते हैं । अरबी फारसी
तुर्की उर्दू के शब्दों में "संग़सार"शब्द आता है ।भारत में किसी संहिता
में राजा को ऐसे दंड के आदेश देने का उल्लेख नहीं है ।रोम में ऐसा पाया
गया ।भारती वर्तमान में भी जितनी घटनायें हुयीं हैं वे भी ""भीड़ द्वारा
हत्या ""नहीं हैं ।एक गुट या व्यक्ति किसी पूरे समूह या समाज की धार्मिक
सांस्कृति भावना को आहत करता रहता है फिर भी कहीं ऐसा कोई कांड नहीं है
कि एक समुदाय विशेष के लोग चुपचाप शांत कहीं बैठे थे और भीड़ आयी और घेर
कर एक को मार डाला ।
यहां जो जो घटनायें हैं वे किसी क्रिया की तीव्र प्रतिक्रिया है विरोध
हैं और दो गुटों का झगड़ा है ।
जब दो गुट लड़ रहे हों तो प्रायः डरपोक लोग बीच बचाव नहीं करते । हिंसक
और आक्रामक झगड़ालू लोग प्रायः बीच में बोलने वाले को ही पकड़ लेते हैं
और वह दोनो तरफ से पिटता है ।
मेरठ में विगत वर्षों में एक अनजान लड़की को छेड़े जाने से रोकने पर एक
फौजी ऐसे ही हिंसकों द्वारा मार दिया गया था ।
भीड़ तमाशाई अवश्य होती है परंतु गुट लड़ते हैं दो गुट या तो लड़कर चले
जाते हैं हंगामा करके ।
या फिर कमजोर गुट वाला अधिक मार खा जाता है । हिंसक मारपीट के बीच बूढ़े
बच्चे बीमार अपाहिज स्त्रियां प्रायः बच के निकलने में ही खैर मनाते हैं
।
भीड़ देखती रहती है ,क्योंकि वह कोई नियोजित जुलूस नहीं किसी प्रकार का
गठित योजनाबद्ध दल नहीं ।
गवाही से भी लोग मुकर जाते हैं क्योंकि दोनों गुट हिंसक और लड़ाकू हैं तो
एक के पक्ष में बोलना मतलब दूसरे से पंगा लेना ।
यह डर व्यवस्था के पचहत्तर साल के गवाहों के प्रति हुये दुर्व्यवहार से भी आया है ।
कायरता नहीं यह है "कौन झमेलों में पड़े "
हिंदू भीड़ ने कहीं किसी को मार डाला ऐसा एक भी उदाहरण नहीं होगा ,
यहां तक कि दंगों तक में साधारण लोग घरों में दुबक जाते हैं या निवास
स्थान त्याग जाते हैं ।
जबकि जुमे की नमाज के बाद आज भी अरब में सरेआम सिर कलम करने जैसा दंड
जारी है और लोग भीड़ बनकर यह तमाशा हर जुमे को देखने इकट्ठा होते हैं
।सरेआम कोड़े मारना ।
तहर्रुश करना यानि गोलबंद भीड़ पुरुषों द्वारा स्त्री को यौन हिंसक तरीके
से छेड़ना ।
भारतीय संहिताओं में कुलटा स्त्री तक को बंदी करके पृथक रखने का दंड है
समाज से वंचित करने एकांत करने का परंतु ""सरेआम कोई क्रूरता करने का
नहीं ""
एक रेल का डिब्बा हो या एक गांव का घर ,वहां एक गुट हिंसक होकर झगड़ता है
या किसी की चोरी बलात्कार डकैती गाय बैल बछेरू काटकर खा जाने जैसी बात तक
पर यदि कुछ लोग इकट्ठे होकर मारपीट करते हैं तो वह भी उस व्यक्ति या
परिवार के समर्थक या संबंधी मित्र पड़ौसी कुटुंबी या शुभचिंतक होते हैं ।
इसे गुट कहा जा सकता है भीड़ नहीं ।क्योंकि शेष असंबद्ध लोग या तो दूर से
तमाशा देखते हैं या छिप जाते हैं ।तब भी हर बार हर मामले में यही सामने
आया कि कुछ लोगों ने रोकने की भी हिम्मत की ।
भारतीय हिंदू भीड़ बन कर माॅबलिंचिंग करने लगे हैं यह आरोप एक तरह का
षडयंत्र है जबकि कल परसों से सबसे अधिक विरोॆध हिंसाओं का हिंदुओं ने ही
किया है ।किंतु दूसरी ओर पूरे विश्व से सबसे खराब हिंसक खबरों पर भी कोई
उसी समुदाय का अभियान नजर नहीं आता कि लोग कहते ""नोट इन माई नेम""चाहे
वह दिल्ली बंगलौर हैदराबाद मुंबई संसद बम विस्फोट हो या कशमीरी पंडितों
को मारना जलाना उनको लूटकर प्रांत से ही निकाल देना और जबरन मजहब बदलवाना
या फिर सेना पर हमले हों या कि यत्र तत्र आतंकवादी घटनायें हों
,प्रतीक्षा है कब दूसरी तरफ के लोग अपने मजहब वालों के विरोध में तखतियां
लेकर खड़े होते हैं ""स्टाॅप संगसार कोड़ा मार बमहमला और माॅबलिंचिंग ,कब
कहेंगे घोषित तौर पर अपने ही मजहब के लोगों के खिलाफ ""नोट इन माय नेम ""
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एक सीधा सादा प्रश्न है कि यह "माॅबलिंचिंग "शब्द आया कहां से है ?भारतीय
भाषा में यदि अनुवाद करना पड़े तो पूरा एक वाक्य ही गढ़ना पड़ेगा ।पहले
से ही व्याख्यायित शब्द सदा मूल स्थान में ही होते हैं । अरबी फारसी
तुर्की उर्दू के शब्दों में "संग़सार"शब्द आता है ।भारत में किसी संहिता
में राजा को ऐसे दंड के आदेश देने का उल्लेख नहीं है ।रोम में ऐसा पाया
गया ।भारती वर्तमान में भी जितनी घटनायें हुयीं हैं वे भी ""भीड़ द्वारा
हत्या ""नहीं हैं ।एक गुट या व्यक्ति किसी पूरे समूह या समाज की धार्मिक
सांस्कृति भावना को आहत करता रहता है फिर भी कहीं ऐसा कोई कांड नहीं है
कि एक समुदाय विशेष के लोग चुपचाप शांत कहीं बैठे थे और भीड़ आयी और घेर
कर एक को मार डाला ।
यहां जो जो घटनायें हैं वे किसी क्रिया की तीव्र प्रतिक्रिया है विरोध
हैं और दो गुटों का झगड़ा है ।
जब दो गुट लड़ रहे हों तो प्रायः डरपोक लोग बीच बचाव नहीं करते । हिंसक
और आक्रामक झगड़ालू लोग प्रायः बीच में बोलने वाले को ही पकड़ लेते हैं
और वह दोनो तरफ से पिटता है ।
मेरठ में विगत वर्षों में एक अनजान लड़की को छेड़े जाने से रोकने पर एक
फौजी ऐसे ही हिंसकों द्वारा मार दिया गया था ।
भीड़ तमाशाई अवश्य होती है परंतु गुट लड़ते हैं दो गुट या तो लड़कर चले
जाते हैं हंगामा करके ।
या फिर कमजोर गुट वाला अधिक मार खा जाता है । हिंसक मारपीट के बीच बूढ़े
बच्चे बीमार अपाहिज स्त्रियां प्रायः बच के निकलने में ही खैर मनाते हैं
।
भीड़ देखती रहती है ,क्योंकि वह कोई नियोजित जुलूस नहीं किसी प्रकार का
गठित योजनाबद्ध दल नहीं ।
गवाही से भी लोग मुकर जाते हैं क्योंकि दोनों गुट हिंसक और लड़ाकू हैं तो
एक के पक्ष में बोलना मतलब दूसरे से पंगा लेना ।
यह डर व्यवस्था के पचहत्तर साल के गवाहों के प्रति हुये दुर्व्यवहार से भी आया है ।
कायरता नहीं यह है "कौन झमेलों में पड़े "
हिंदू भीड़ ने कहीं किसी को मार डाला ऐसा एक भी उदाहरण नहीं होगा ,
यहां तक कि दंगों तक में साधारण लोग घरों में दुबक जाते हैं या निवास
स्थान त्याग जाते हैं ।
जबकि जुमे की नमाज के बाद आज भी अरब में सरेआम सिर कलम करने जैसा दंड
जारी है और लोग भीड़ बनकर यह तमाशा हर जुमे को देखने इकट्ठा होते हैं
।सरेआम कोड़े मारना ।
तहर्रुश करना यानि गोलबंद भीड़ पुरुषों द्वारा स्त्री को यौन हिंसक तरीके
से छेड़ना ।
भारतीय संहिताओं में कुलटा स्त्री तक को बंदी करके पृथक रखने का दंड है
समाज से वंचित करने एकांत करने का परंतु ""सरेआम कोई क्रूरता करने का
नहीं ""
एक रेल का डिब्बा हो या एक गांव का घर ,वहां एक गुट हिंसक होकर झगड़ता है
या किसी की चोरी बलात्कार डकैती गाय बैल बछेरू काटकर खा जाने जैसी बात तक
पर यदि कुछ लोग इकट्ठे होकर मारपीट करते हैं तो वह भी उस व्यक्ति या
परिवार के समर्थक या संबंधी मित्र पड़ौसी कुटुंबी या शुभचिंतक होते हैं ।
इसे गुट कहा जा सकता है भीड़ नहीं ।क्योंकि शेष असंबद्ध लोग या तो दूर से
तमाशा देखते हैं या छिप जाते हैं ।तब भी हर बार हर मामले में यही सामने
आया कि कुछ लोगों ने रोकने की भी हिम्मत की ।
भारतीय हिंदू भीड़ बन कर माॅबलिंचिंग करने लगे हैं यह आरोप एक तरह का
षडयंत्र है जबकि कल परसों से सबसे अधिक विरोॆध हिंसाओं का हिंदुओं ने ही
किया है ।किंतु दूसरी ओर पूरे विश्व से सबसे खराब हिंसक खबरों पर भी कोई
उसी समुदाय का अभियान नजर नहीं आता कि लोग कहते ""नोट इन माई नेम""चाहे
वह दिल्ली बंगलौर हैदराबाद मुंबई संसद बम विस्फोट हो या कशमीरी पंडितों
को मारना जलाना उनको लूटकर प्रांत से ही निकाल देना और जबरन मजहब बदलवाना
या फिर सेना पर हमले हों या कि यत्र तत्र आतंकवादी घटनायें हों
,प्रतीक्षा है कब दूसरी तरफ के लोग अपने मजहब वालों के विरोध में तखतियां
लेकर खड़े होते हैं ""स्टाॅप संगसार कोड़ा मार बमहमला और माॅबलिंचिंग ,कब
कहेंगे घोषित तौर पर अपने ही मजहब के लोगों के खिलाफ ""नोट इन माय नेम ""
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