लोक जीवन में बसे भारतीय नियम और अधिनियम।

आपस्तम्ब गृहसूत्र और मनु ने भी चौथ पर बहिन का हक बताया है ,
और परंपरा है कि विवाह के चौथे दिन जाकर भाई बहिन के हाथ पर पेराखें
यानि बहुत बड़ी साईज की गुजिया लड्डू रुपया आदि रखकर यह वचन याद है की तसदीक करता है कि जीवन भर उसकी कमाई का चतुर्थांश वह बहिन को देता रहेगा .....
...
राखी
दूज
दिवाली
तीज
नौरते भुंजरियां छटी भात और घर में हर पर्व पर मंडल और बहिन की पहली आगमन की शर्त से यह अकथित अलिखित संविधान निभाया जाता है ,
पति निकाल दे तो भाई का घर उसके लिये सदैव खुला ही रहना है ,
पति मर जाये तो जब चूड़ी तोड़ने की दर्दनाक कुप्रथा हो रही होती है उस समय भी भाई चांदी की लाख की चूड़ी लेकर पहनवाता है कि ये वस्त्र और चूड़ी अब पुनः मेरी जिम्मेदारी

हमारी बुआसास
और ननद के लिये हमारे घर से ये रस्म निभायी गयी ,
जिनके भाई नहीं तो भतीजे करते हैं ,,
,,अब तक तो इसी लिये सच है

सच है कि
स्त्री पति के जाने से नहीं ,

भाई
के जाने से ही रांड
यानि
अनाथ
होती है।
बहुत बुरी तरह मुगलिया रिवाज हावी हो गये परंतु हम लोगों ने एक समृद्ध बचपन जिया है ,वहां हर दिन पहला कौर घर की कन्या ही जीमती है .और बहिन छोटी हो या बड़ी भाई ही सदैव पांव पूजता है ,बुन्देलखंड में दो बार भाई दूज होती है होली के तीसरे दिन और दीवाली के तीसरे दिन तब सब बसें तक बंद रहती हैं दोपहर बाद ही तिलक करवाकर बसें चलतीं हैं ,
दो तीज होती हैं एक पति के घर मधुश्रवा और एक भाई के घर अक्षय तृतीया ,
दशहरे पर भाई को वीरन कहकर तिलक करतीं हैं बहिनें ,और
भाई के घर कोई भी पर्व हो "डलिया "आती बहिन के घर से मतलब सूखे मेवे मिठाईयां मठरी शकरपारे खुरमें पूआ भरकर बहिन लाती है सात घरों से सात जात तक बायना जाता है ,
तब सब अतिथि आने प्रारंभ होते हैं ,
ऐसा कहते हैं कि बहिन का चतुर्थांश मारने वाले भाई का धन ब्याज समेत चूहे और चोर ले जाते हैं ,
चाहे पिता ने कुछ भी न छोड़ा हो यदि भाई है तो उसकी देह के श्रमोपार्जित धन पर चतुर्थांश बहिन का है ,
यह मानने वाले कम नहीं हैं
और सहर्ष राखी दूज गौना चौथ तीज दशहरा भागवत कथा कांवड़ सब पर से पहला दाय बहिन को ही जाता है ,
यहां तक कि भाई के समधी तक बहिन मानकर "फूफा साड़ा "भेजते हैं वहू की बुआ को ,
और
यहां याद रखें कि जब ससुराल में हाय तौबा मची होती है लड़का जाने की मनहूस बहू होने की तब स्त्री को विलाप पर से उठाने भाई को ही जाना पड़ता है ,
मैं तो हूं
कहकर।
 बहिन की संतान के विवाह पर ,,,भात ,,,की चौकी पर खड़े होना एक उऋण होने की ही परंपरा है ,
वहां भाई कहलाने वाले सब के सब ममेरे चचेरे फुफेरे तयेरे ही नहीं भाई जिन जिनको अपना समझे उनको लेकर जाता है और ""भतेउर ""नाम से तय किये कक्ष में देहली पर बहिन आरती करके नारियल तिलक से भाई के पूरे भातीदल का एक एक करके स्वागत करती गले भेंटती है सब अपना अपना ऋण अदा करते हैं ,
संतान के विवाह की सब रस्में बहिन भाई का दिया ही सबकुछ पहन कर अदा करती है ,

यह बहिन की परीक्षा है ससुराल में बुढ़ापे पर कि मैं अभी अनाथ नहीं मेरे इतना कुनबा रीढ़ है।
 यह रस्म सब जगह है ,
छलौरी का पानी डाले बिना पश्चिमी यूपी में

चीकट नहाये बिना बुंदेलखंड

मायरा दिये बिना राजस्थान

और
मामा भांजा कलेवा बिना पूर्वी यूपी में ऋण माना जाता है ,

बहिन तब तक सजती सँवरती नहीं संतान के विवाह में जब तक भाई का पिटारा नहीं आ जाता ,

लगन के दिन से हर शाम "भात गीत गाये जाते हैं ,,

अरे भईया करूं विनती समय पर भात ले आना ,,,,
,,,,,
छोटी सी भईया गाड़ी ले आना उसी में मेरी चुनरी उसी में मेरी साड़ी उसी में भईया आप आ जाना ,,,
भाई के घर अशौच हो जाये ,यानि किसी की मृत्यु हो जाये तो बहिन के दिये ""चीर से वह शुद्ध होता है ""

और

नयी बहू लाने पर बहिन प्रवेश द्वार पर खड़ी होती है द्वार छेंकने को ,
क्योंकि भाभी लाया है अब तो भूल न जाना बहिना को ,,,,
,,,
भतीजी जो खीलें बिखेरती है पिता के घर समृद्धि बनी रहे इस प्रार्थना के साथ विदाई में
वह रात में बहिन ही कच्चे चूल्हे पर चटकाकर तैयार करती है ,
और यह माना जाता है कि अब बुआ समझौता कर रही है कि भतीजी के लिये एक अंश बुआ की तरफ से दाय है।
सबसे प्रथम कार्य ही है देवपूजन ,उसी दिन ""सीधा छुआई होती है "विवाह की एंकर ही बुआ होती है ,पितृन्यौती परंपरा देवता लिवाने जाने के साथ ही जुड़ी है कोरे मिट्टी के बरतन गंगाजली लाकर रखना और पुरखों वाले मंदिर से प्रतीकात्मक रूप से देवता लिवाने जाना ,वहीं से आकर सात अन्न तैयार करने का प्रारंभ सुहागिने और कुमारियां करती हैं ,गाते भी है ,,,,,,बयार के हनुमत हैं रखवाले ,बादल के हनुमत हैं रखवाले ,हमरे गणपति बप्पा ऐसेँ गरजत हैं जैसेँ इंद्र नगाड़े ,,,,,,,,,,,यहां याद रखने वाली बात है कि चिट्ठी निमंत्र पर हलदी लगाकर देवताओं के लिये न्यौता रखकर पहला निमंत्रण भी बहिन भांजी को ही दिया जाता है तब अपनी पुत्री जामाता के घर नेवता भेजा जाता है ,ये नेवता हल्दी छींटे देखकर ही बहिन समझ लेती है शुभ सूचना है ,,लिफाफे में पहले एक रुपया भी रखा जाता था जिसे "तमोर "कहते हैं उसे लौटाने तो आना ही पड़ेगा ,,,वही रुपया हर नेग में एक रुपया ऊपर चलता है चाहे पांच सौ एक हों या दस हजार एक ,,,,,यानि गिनती पुनः प्रारंभ है व्यवहार की बंद नहीं ,,,बहिन की तरफ से आया व्यवहार "खोटा "कहकर लौटाने की हँसी मजाक की भी परंपरा है ,वह भतीजी को तो देती है उपहार परंतु भाई के व्यवहारियों की सूची में उसका व्यवहार सवाया करके लौटा दिया जाता है । उधर बहिन के घर की पाँत भोज का जो जो भोजन पकता है उस सबमें भाई का लाया "अन्न नमक घी सब जरा जरा ही सही परंतु डाला जाता है तभी पूरा"" पाँतभोज""होना माना जाता है ,,बहिन के पड़ौसियों तक को बहिन के भाती का ""टूप ""जाता है जो प्रायः कुछ पैसे फल मिठाई और रूमाल या एक छोटा बरतन होते हैं ........इसमें एक कर्त्तव्य बंधन है पारस्परिकता है ....विवाह से पहले बहिन भात न्यौतने जिस तरह जाती है विवाह पूरा होने पर बहिन भात का दशांश लौटाकर बरकत का आशीष देने भी जाती है जिसमें भतीजों भतीजियों और भाभियों के लिये उपहार रहते हैं ......कामना यह रहती है कि भाई की बरकत रहे वह पूरी तरह नहीं आर्थिक रिक्त हो ......ये परंपरायें बड़ी दृढ़ थीं ,आज भी कसबों और गाँवों में हर्ष उल्लास से मनती है .........भात में आये भाई के कुनबे की आवभगत बारात से भी अधिक होती है ,,,मामा फूफा मिलकर ही विवाह कार्य का श्रीगणेश करते हैं ,,,भाभियाँ ननद के घर आकर गारीं गातीं है और संगीत का मुकाबिला देखने लायक होता है । ...........छटंकी ओला पड़ ग्या री नौटंकी (ननद)माँगे भात ""मैंने कई ती चांदी ले ले वो तो माँगे सोना मेरा हार नजर पै चढ़ ग्या री नौटंकी माँगे भात ::::::::::::
बुन्देलखंड का कुँवर हरदौल का मरकर भी बहिन कुञ्जावती को भात देना पीड़ाभरा स्नेहभरा और गर्वभरा सत्य चरित् है ,,,,,जिनके भाई नहीं वे हरदौल के चौंतरे पर भात मांगने जातीं है सो हरदौल सब बहिनों के भाती वीर हो गये।
कानून का इधर कार्य ही नहीं ,,,,ऐसी बहिनें हैं जिन्होंने कभी मुड़कर मायके से पानी भी न मांगा और ऐसे भाई है जिन्होंने स्वयं की एड़ी घिस डाली बहिनों की जिन्दगी पर आँच नहीं आने दी ,,,,न कोई अधिनियम न संविधान यह सब परंपरा की दृढ़ सत्ता का कमाल है।

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