क्यों है भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वश्रेष्ठ ***********************
क्यों है भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वश्रेष्ठ ***********************
आप यदि चालीस से ऊपर के हैं तो याद करें आपने अपनी मां दीदी दादी बुआ
काकी माँसी नानी मामी ताई पुरोहितानी पड़ौस वाली जीजी काकी और दादी के
पाँव प्रायः हर तीज त्यौहार जन्मदिवस और दशहरा दीवाली परदेश जाते और आते
समय परीक्षा देने जाते और उत्तीर्ण होने पर भी छुए होंगे ही ,
सब का आशीर्वाद याद करें ,
और उन पलों की भावना याद करें ,
भारत में पुरुष हर जगह "नर "नहीं है । वह मानव है ।
प्रणाम
की नमस्कार की भारतीय परंपरा में दोनों हाथ हृदय के पास लाकर सिर झुकाकर
जोड़ दिये जाते हैं और एक हो या एक करोड़ सबको प्रणाम हो जाता है ,और न
कोई संक्रमण न ही किसी के प्रति कामुक अश्लील स्पर्श की तनिक भी गुंजाईश
,
जबकि
गाल चूमने ,हाथ चूमने ,गले मिलकर चिपकने ,हाथ मिलाने ,घुटने चूमने ,या
आगे पूरा कमर झुकाकर झुकने इन सब तरीकों में ,
एक दोष है शरीर को स्पर्श करना या बुरी तरह बार बार झुकने से कोई प्रहार
धोखा सिर टकराने जैसी भूल कर बैठने की गुंजाईश छोड़ना ,
भारतीय कन्याओं से स्त्रियों से स्पर्श नहीं करने की नीति पर पले बड़े
हैं ,याद करें कि पंसारी ,कोरी ,काछी ,बजाज, मनिहार किसी से भी सामान
लेते समय हाथ न छूए स्त्रियों का इस मर्यादा का स्मरण रखा जाता था
।डाकिया हो या तार वाला ,पैसा रुपया लेना हो या देना स्पर्श से सदैव
स्त्रियाँ बचकर ही रहतीं थीं ।
यहाँ दो कारण है ,प्रथम स्त्रियों को स्वस्थ और स्वच्छ रहना है और यह
अपने शिशु ,गर्भ, रसोई ,और गृहस्थी सबके लिये निरोग रहने की पहली
अनिवार्य स्थिति रही ..........आज जीका वायरस ,वायरल फीवर ,ई बोला ,एड्स
,टीबी ,पीलिया, और तमाम त्वचा रोग सांस रोग ,
इस बात का प्रमाण है कि सनातन भारतीय ,,,,अस्पृश्ता ,,,,घृणा हेतु नहीं
अपितु आरोग्य ,,,नीरोगता ,,,और निःसंक्रमण की नीति हेतु था ।
.....दूसरा कारण है कामोत्तेजना पर नियंत्रण ,माने या न माने परंतु
यूरोपियन चूमा चाटी हगने और लिपटने मुआह और हाईफाई की संस्कृति ने ,बहुत
जगह छोड़ रखी है ,कुत्सित मन विचार भाव के लोगों के लिये कि वे स्त्रियों
को अश्लील कामुक और दुर्वासना से छू सकें ,,,न भी हो मन अशान्त तो भी हो
सके ,और एक स्त्री को छुआ चूमा हग किया ,हाथ मिलाया यह एक मनोविकार की
स्थिति में कल्पना की गंदगी भी हो सकता है । यहीं इसी आननपोथी पर कुछ
लोगों ने यदा कदा स्वीकारा कि वे अनेक ग़ैर स्त्रियों के प्रति काल्पनिक
कामवासना से सोच जाते रहे हैं । काम वासना हर व्यक्ति के लिये पृथक पृथक
स्तर पर है ,कईयों को स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है इसमें प्रायः
स्त्रियों की संख्या ही अधिक है ,और कई मानव हर पल कामविचार से ही भरे
होते हैं जब देखो तब हाथ इधर उधर विशेष कर अमर्यादित वातावरण में रह रहे
पुरुष ।
सनातन अभिवादन पद्धति इस तरह के मानसिक रोगियों तक के लिये गुंजाईश नहीं छोड़ती ।
गुरूमाता
माता
माँसी
माँ मी
ताँ ई
दादी
नानी
जीजी
बहिन
भाभी
बुआ
और पड़ौस की सब स्त्रियाँ ,
सगोत्र स्त्रियां
कुटुम्ब की स्त्रियाँ
अनुज वधू
पुत्र वधू
पौत्र वधू
कुमारी कन्या
सहपाठी गुरूभगिनी
इन सबको सनातन संस्कृति में विचार तक में कामभावना रखने से वर्जित कर दिया ,
और
मन बाँधने को चरण स्पर्श की परंपरा चलायी ,
स्वाभाविक है जब चरण वंदन के लिये सिर सहित पूरा झुकना पड़ता है ,
सारा अहंकार कुछ पलों के लिये तिरोहित होकर आशीर्वाद का याचक हो जाता है ,
उस याचना में अपेक्षा है ,
तो शुभ वचन सुनने की ,
सब कह देतीं हैं ,
आयुष्मान हो सदा सुखी रहो विजयी भव प्रसन्न रहो ,
क्या
मन की अनंत गहराईयों से निकले इन आशीर्वचनों का लाभ न मिलता होगा !!!
सर बेन्डीवर ने किंग आर्थर के लिये विदाई वेला में लिखा कि प्रार्थना
चमत्कार कर सकती है इतना कि मानव सोच नहीं सकता !!
कुरान में दूसरे के लिये दुआ मांगना फर्ज कहा गया ,
बाईबिल कहती है प्रार्थना से असंभव भी संभव हो जाता है !!वही परंपरा में
हमारे सतत आत्मसात है तो ,हम पिछड़े हैं ??चेतना के स्तर पर विचार कीजिये
आपको अपनी संस्कृति से प्रेम और स्वयं पर गर्व हो उठेगा
तो क्यों न अपनी ही संस्कृति पुनर्जीवित करें ?
©®सुधा राजे
आप यदि चालीस से ऊपर के हैं तो याद करें आपने अपनी मां दीदी दादी बुआ
काकी माँसी नानी मामी ताई पुरोहितानी पड़ौस वाली जीजी काकी और दादी के
पाँव प्रायः हर तीज त्यौहार जन्मदिवस और दशहरा दीवाली परदेश जाते और आते
समय परीक्षा देने जाते और उत्तीर्ण होने पर भी छुए होंगे ही ,
सब का आशीर्वाद याद करें ,
और उन पलों की भावना याद करें ,
भारत में पुरुष हर जगह "नर "नहीं है । वह मानव है ।
प्रणाम
की नमस्कार की भारतीय परंपरा में दोनों हाथ हृदय के पास लाकर सिर झुकाकर
जोड़ दिये जाते हैं और एक हो या एक करोड़ सबको प्रणाम हो जाता है ,और न
कोई संक्रमण न ही किसी के प्रति कामुक अश्लील स्पर्श की तनिक भी गुंजाईश
,
जबकि
गाल चूमने ,हाथ चूमने ,गले मिलकर चिपकने ,हाथ मिलाने ,घुटने चूमने ,या
आगे पूरा कमर झुकाकर झुकने इन सब तरीकों में ,
एक दोष है शरीर को स्पर्श करना या बुरी तरह बार बार झुकने से कोई प्रहार
धोखा सिर टकराने जैसी भूल कर बैठने की गुंजाईश छोड़ना ,
भारतीय कन्याओं से स्त्रियों से स्पर्श नहीं करने की नीति पर पले बड़े
हैं ,याद करें कि पंसारी ,कोरी ,काछी ,बजाज, मनिहार किसी से भी सामान
लेते समय हाथ न छूए स्त्रियों का इस मर्यादा का स्मरण रखा जाता था
।डाकिया हो या तार वाला ,पैसा रुपया लेना हो या देना स्पर्श से सदैव
स्त्रियाँ बचकर ही रहतीं थीं ।
यहाँ दो कारण है ,प्रथम स्त्रियों को स्वस्थ और स्वच्छ रहना है और यह
अपने शिशु ,गर्भ, रसोई ,और गृहस्थी सबके लिये निरोग रहने की पहली
अनिवार्य स्थिति रही ..........आज जीका वायरस ,वायरल फीवर ,ई बोला ,एड्स
,टीबी ,पीलिया, और तमाम त्वचा रोग सांस रोग ,
इस बात का प्रमाण है कि सनातन भारतीय ,,,,अस्पृश्ता ,,,,घृणा हेतु नहीं
अपितु आरोग्य ,,,नीरोगता ,,,और निःसंक्रमण की नीति हेतु था ।
.....दूसरा कारण है कामोत्तेजना पर नियंत्रण ,माने या न माने परंतु
यूरोपियन चूमा चाटी हगने और लिपटने मुआह और हाईफाई की संस्कृति ने ,बहुत
जगह छोड़ रखी है ,कुत्सित मन विचार भाव के लोगों के लिये कि वे स्त्रियों
को अश्लील कामुक और दुर्वासना से छू सकें ,,,न भी हो मन अशान्त तो भी हो
सके ,और एक स्त्री को छुआ चूमा हग किया ,हाथ मिलाया यह एक मनोविकार की
स्थिति में कल्पना की गंदगी भी हो सकता है । यहीं इसी आननपोथी पर कुछ
लोगों ने यदा कदा स्वीकारा कि वे अनेक ग़ैर स्त्रियों के प्रति काल्पनिक
कामवासना से सोच जाते रहे हैं । काम वासना हर व्यक्ति के लिये पृथक पृथक
स्तर पर है ,कईयों को स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है इसमें प्रायः
स्त्रियों की संख्या ही अधिक है ,और कई मानव हर पल कामविचार से ही भरे
होते हैं जब देखो तब हाथ इधर उधर विशेष कर अमर्यादित वातावरण में रह रहे
पुरुष ।
सनातन अभिवादन पद्धति इस तरह के मानसिक रोगियों तक के लिये गुंजाईश नहीं छोड़ती ।
गुरूमाता
माता
माँसी
माँ मी
ताँ ई
दादी
नानी
जीजी
बहिन
भाभी
बुआ
और पड़ौस की सब स्त्रियाँ ,
सगोत्र स्त्रियां
कुटुम्ब की स्त्रियाँ
अनुज वधू
पुत्र वधू
पौत्र वधू
कुमारी कन्या
सहपाठी गुरूभगिनी
इन सबको सनातन संस्कृति में विचार तक में कामभावना रखने से वर्जित कर दिया ,
और
मन बाँधने को चरण स्पर्श की परंपरा चलायी ,
स्वाभाविक है जब चरण वंदन के लिये सिर सहित पूरा झुकना पड़ता है ,
सारा अहंकार कुछ पलों के लिये तिरोहित होकर आशीर्वाद का याचक हो जाता है ,
उस याचना में अपेक्षा है ,
तो शुभ वचन सुनने की ,
सब कह देतीं हैं ,
आयुष्मान हो सदा सुखी रहो विजयी भव प्रसन्न रहो ,
क्या
मन की अनंत गहराईयों से निकले इन आशीर्वचनों का लाभ न मिलता होगा !!!
सर बेन्डीवर ने किंग आर्थर के लिये विदाई वेला में लिखा कि प्रार्थना
चमत्कार कर सकती है इतना कि मानव सोच नहीं सकता !!
कुरान में दूसरे के लिये दुआ मांगना फर्ज कहा गया ,
बाईबिल कहती है प्रार्थना से असंभव भी संभव हो जाता है !!वही परंपरा में
हमारे सतत आत्मसात है तो ,हम पिछड़े हैं ??चेतना के स्तर पर विचार कीजिये
आपको अपनी संस्कृति से प्रेम और स्वयं पर गर्व हो उठेगा
तो क्यों न अपनी ही संस्कृति पुनर्जीवित करें ?
©®सुधा राजे
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