कविता :वीरों की जय रहे सदा ही ,वीरों का सम्मान

एक अकेला सिंह सियारों के जंगल शासक है
सिंहवाहिनी उठे हिल उठे अंबर भू  सागर के तल

भूले हो तुम कहाँ आह  दुर्दशा राष्ट्र की देखो तो
छली पी रहे रक्त दीन का ओढ़ तंत्र जनमत कंबल

तिलक चीर अंगुष्ठ मातृ भगिनी करतीं क्यों सदियों से ?
खंड खंड कर मुंड रुंड अरिभाल अगर छू दे अंचल

शोणित सिक्त मेदिनी वीर प्रसविनी निर्निमेष देखे
आह कहीं से उठे वीर हुंकार चीर तारा मंडल

वीर शिरा में लहू नहीं लावे की तपन धधकती है
शौर्य धमनियों में ज्वाला का स्पंदन बहता कल-कल

लोरी स्वाँग प्रभाती संझा अब  गाने का समय नहीं
रक्तोद्वेलक गीत सुनाती रणभेरी जंगल- जंगल

लोक लीक प्रतिमान तुम्हारी ही तुलना से रचे खचे 
भागीरथ श्रीराम शिवाजी राणा गंग जमुन चंबल 

जंग लगी तलवार भी  तपे कीट पतंगे जल  जाते
फिर तो भुजपाशों के आगे रेशम कीट़ों का छल दल

कौन तुम्हें मारेगा ? कैसे कोई डरायेगा तुमको ?
मृत्युप्रेयसी वरण वीर का ही तो संबल बल दिग्बल 

डर !वो होता क्या है पूछो मात्र पीठ दिखला देना
कदम उठा ही दिये बढ़ो फिर हासिल करनी है मंज़िल

पीछे अगर हटी तो समझो सेना नहीं रेवड़ें थीं
डर गये तो वे हुंकारे थीं मात्र कपोतों की हलचल

घर से निकलो तो सौगंध उठाकर जय की याद रहे
शोर बहुत करते हैं थोथे ढोल खोखले खल मंडल

धधक रही ज्वाला में गलकर पिघल पिघल कर ढला हुआ
रक्त रचा इतिहास बदलने चले सर्प का शीश कुचल

©®सुधा राजे

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