कविता :एक अकेली नन्हीं लड़की
एक अकेली नन्ही लड़की रोज चली आती है घर
कभी शाम को खेल खिलौने लिये कभी कुछ टूटे पर ©®
उस लड़की के बाल सदा ही उलझे बिखरे से
गाल साँवले नयन नक़्श तीखे कुछ निखरे से ©®सुधा राजे
घर तो है ही नहीं कुटुंबी कोई नहीं दिखता
उस लड़की की बात कहीं भी कोई नहीं लिखता ©®सुधा राजे
टूटे फूटे शब्दों में कुछ गाती रहती है
हाथ सने माटी में पर मुस्काती रहती रहती है ©®सुधा राजे
नशा पिये मदहोश पिता हर रात झगड़ता है
माँ को घर के काम रोटियाँ भात रगड़ता है ©®सुधा राजे
पिटती कुटती लड़की दिन भर गाली खाती है
दौड़ भाग से थकी आखिरी थाली खाती है ©®सुधा राजे
ना जाने क्यों उस लड़की पर नजर अटकती है
बहुत हुनर वाली है फिर भी युँ ही भटकती है ©®सुधा राजे
मन की बात न कहती रौनक मेला करती है
चोटें लिये पोंछ कर आँसू खेला करती है ©®सुधाराजे
कैसे जाने पिता नशे में धुत्त कहाँ सोयी
माँ खेतों पर बसे पता क्या हँसी कहाँ रोयी ©®सुधा राजे
घर में पागल चोर नशेड़ी लती मवाली हैं
उस लड़की के लिये तमाचे थप्पड़ गाली हैं ©®सुधा राजे
ना जाने ये नन्हीं लड़की क्यों आ जाती है
मुझे वेदना की सरिता में रोज डुबाती है ©®सुधा राजे
फटी पुरानी पुस्तक लेकर पढ़ती रहती है
गाँठ गाकर चिंदी धागे मढ़ती रहती है ©®सुधा राजे
कभी वासना भरी छुअन से डरे कभी लड़ती
देख रही उस एकाकिन को नया विश्व गढ़ती ©®सुधा राजे
उसकी बड़ी बड़ी आँखों में आँसू भरे भरे
पपड़ाये अधरों पर अक्षर तीखे झरे झरे ©®सुधा राजे
नदी लहर जंगल रेतीले टीलों पर जाती
नन्हीं लड़की जाने किसको लिखे रोज पाती ©®सुधाराजे
टूटी ऊन लिये सीकों से बुनती गुनती सी
कभी हठी सी लगे कभी भोली सब सुनती सी ©®सुधाराजे
पूरी पूरी रात सिसकती रहती कुछ ना कुछ लिखती
सूनी छत पर कभी कभी ही वो लड़की दिखती ©®सुधा राजे
क्या दुख उसे सोचकर मन कुछ भरा भरा सा है
बचपन से ही प्रौढ़ सोचकर डरा डरा सा है ©®सुधा राजे
डरती नहीं मरघटों पनघट खेत पहाड़ों से
धूप धुएँ वर्षा से लू से कोह्रे जाड़ों से ©®सुधा राजे
चुपके भरी दोपहर घर से निकल खेलती है
नन्हीं लड़की घर में नित अपमान झेलती है ©®सुधा राजे
कभी दाल सब्जी तो चटनी नमक कभी रूखी
छोटी बहिन चपेटे अकसर सो जाती भूखी ©®सुधा
कौन पूछने वाला घर में क्या खाती पीती
उपने पाँव ठिठुरती जाने कैसे है जीती ©®सुधा राजे
अपराधी की तरह पीटते रहते हैं भाई
दुश्मन जैसे गरियाती है कोस कोस माई ©®सुधा राजे
अवसर मिला कि नाते रिश्तेदार लपकते से
पी जाती है दर्द अधर से नयन टपकते से ©®सुधा राजे
जरा शिकायत झूठी सच्ची मिलते पिट जाती
पुस्तक पाते कहीं कोई सब भूल चिपट जाती ©®सुधा राजे
बहुत खुशी की बात कि विद्यालय तो जाती है
किंतु कलेवा लाती ना कुछ खाकर आती है ©®सुधा राजे
मैले कपड़े किंतु खिली सी हँसी चहकती सी
मेधावी बच्ची अनगढ़ सी बेल महकती सी ©®सुधा राजे
सूखे हुये आँसुओं वाले धब्बे चेहरे पर
नन्हीं ल़ड़की दिखे भेड़ियों वाले पहरे पर ©®सुधा राजे
मैं अकसर ही उस लड़की से बातें करती हूँ
उसके सपनों अरमानों से सचमुच डरती हूँ ©®सुधा राजे
ध्वस्त भवन विद्यालय टूटी फूटी दीवारें
टाटपट्टियों पर ही नये सपनों की मीनारें ©®सुधा राजे
बड़ी बड़ी बातें करती वो निपट अकेली सी
प्रौढ़ बालिका पल पल ज्यों संकट से खेली सी ©®सुधा राजे
सोचा तो हर काम काज हर हुनर कुदरती गुन
बड़े लोग भी चकित रहा करते हैं उसकी सुन ©®सुधा राजे
गज़ब आत्मविश्वास कंठ में स्वर तीखी नज़रें
गली मुहल्ले में ढोलक पर उसके गीत झरें ©®सुधा राजे
मुझसे उस नन्हीं का जाने कैसा नाता है
इक दिन भी ना मिले शून्य सा मन हो जाता है ©®सुधा राजे
गैया कुत्ता बिल्ली बकरी गाँव पालती है
खुद अनाथ सी किंतु सभी को छाँव डालती है ©®सुधा राजे
कहने को परिवार भरा कुनबा है पूरा ही
किंतु जानता कोई न समझे उसे अधूरा ही©®सुधा राजे
मन्दिर मसजिद चर्च शिवालय घंटों तकती है
ध्यान लगा बैठे संतों सी कैसी भक्ती है !©®सुधा राजे
अंबालय में झाड़ू देकर विग्रह नहलाती
घंटों करे आरती पूजन प्रतिमा बहलाती ©®सुधा राजे
इतनी छोटी वय में ऐसा ईश्वरवादी मन
डर जाती हूँ सोच कि आगे क्या होगा जीवन ©®सुधा राजे
जैसे अपनी निर्माता अपनी अभिभावक है
मेधावी है खेलकूद में उत्तम धावक है ©®सुधा राजे
जाड़े में कथरी पर सोती कथरी ही ओढ़े
कभी न देखे वस्त्र नये मिलते हों दो जोड़े ©®सुधा राजे
जन्मदिवस लड़की का कौन मनाता है घर में
चकित वेदना की पुतली क्या देखे ईश्वर में !!©®सुधा राजे
हक़ ही नहीं खेलने गाने सोने खाने का
घर में नये सामान भेंट में कुछ पा जाने का ©®सुधा राजे
सिलती रहती वस्त्र नवेले उतरन कतरन से
कभी न लज्जित देखी उधड़ी गंदी पहरन से ©®सुधा राजे
मंजन साबुन तेल कहाँ वो पाती नये कपड़े
नशा वासना ऐब हर तरह से घर को जकड़े ©®सुधा राजे
उसके घर में पुरुष क्रोधहिंसा से भरे हुये
स्त्री बच्चे दास बने रहते हैं डरे हुये ©®सुधा राजे
सोच रही हूँ पूछूँ क्या क्या माँगा ईश्वर से
हँसते ही ना रो दे पगली चुप हूँ इस डरसे ©®सुधा राजे
सगी और सौतेली दो दो माँयें जिंदा हैं
आठ भाई दो बहिन बताती कुछ शर्मिन्दा है ©®सुधा राजे
पूछा तो चुप हो गयी कहकर मुझको नहीं पता
दो परिवार निभाता कैसे है मदहोश पिता ©®सुधा राजे
कुछ अजीब चित्र से बनाती कुछ गाती लिखती
बच्ची तो है किंतु बड़ों से भी बुजुर्ग दिखती ©®सुधा राजे
घर सारे छोटे बच्चों को वो बहलाती
दाई धाय माँ बनी लोरियां शिशुओं को गाती ©®सुधा राजे
अभी अभी चलना खुद सीखा बालक पाल रही
गले लगाता कौन उसे ये पीड़ा साल रही ©®सुधा राजे
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