लेख :पद्मावत के बहाने ,देश के घाव पुराने

पद्मावत ,मलिक मु.जायसी का निराकार ब्रह्मोपासना का सांड्गरूपक महाकाव्य है जिसके राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती का विरह आत्मा परमात्मा पर चौपाई दोहा छंद में लिखा गया है । क्या शाहिद कपूर ,रणबीर सिंह ,दीपिका पादुकोण ,संजय लीला भंसाली और फिल्म सेंसर बोर्ड ने ""पद्मावत ""जायसी के महाकाव्य पर बनायी है ????
यदि नहीं तो यह नाम बदलने का ढकोसला पूरे एक वीर कौम के घाव जलाने जैसा अपराध नहीं तो क्या है ???
आप में से किसी की नानी दादी या मां किसी बदनीयत हमलावर विदेशी से अपने कुल परिवार की मान मर्यादा के लिये यदि आत्महत्या कर लें जल मरें और परिवार के युवा किशोर तरुण नौनिहाल उस हमलावर के हाथों मारे जायें ,फिर उन नानी दादी मां के शव समाधियों के कपोल कल्पित फिल्मीकरण करके लोगों का मनोरंजन किया जाये धन कमाने के लिये तो पता है कैसा लगेगा ??
सतियों की पीड़ा सती के परिवार कभी कैसे भूलेंगे जिन्होंने दहकती आग पर छलांग लगा दी पेट पर बच्चे बाँधकर कि जाईये वीरो युद्ध में पीछे अब कुछ नहीं रहा मरो या मार दो ,??
हर जाति हर वंश की स्त्री सिंध में ,चंदेरी में ,पंजाब में ,मेवाड़ में और यत्र तत्र समूचे भारत में विदेशी आक्रमणकारियों के साथ भारतीयों के युद्ध के समय""सती ""हुयीं ।
भारत उन घावों को कितना भी ढँक ले भूल तो नहीं सकता !!!!
ये ""लीला""शब्द माँ के नाम पर लगाने वाला व्यक्ति भंसाली कैसे नहीं समझ पाता है कि माँ जब नाचने का अभ्यास करती थी मामूली सी खोली में तो पड़ौसी लड़ने आ जाते थे और पिता रोज झगड़ा करता था माँ से इतना प्रेम करने वाला व्यक्ति कि माँ का नाम ही सरनेम की तरह लगाये फिरता है ,,,,,,कैसे नहीं समझ सका कि ""पद्मावती "एक स्त्री रानी मात्र नहीं पूरे भारत को मिला जलता घाव है !!!
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ये है अपना राजपुताना नाज़ इसे तलवारों पर
कूद पड़ीं थीं यहाँ हज़ारों पद्मिनियाँ अंगारों पर
यहाँ प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पर ???????
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सवाल फिल्म बनाने की और अभिव्यक्ति की आज़ादी का है ही नहीं ,
सवाल है कि क्या मनोरंजन और कला के नाम पर किसी को भी धन कमाने के लिये किसी के पूर्वजों पर काल्पनिक कहानियाँ वितरण करने का हक है ???
पद्मावती कोई नेता मंत्री या सार्वजनिक व्यक्ति नहीं थीं ,
वे राजपूतों की पूर्वज हैं ,
उनके पितृकुल ,
मातृकुल ,
और सप्तगोत्रकुल के वंशज आज भी है ।
उनके दर्द उन रेतीले ढूहों में धधकती समाधियों पर हर साल हर रोज याद किये जाते हैं ।
क्षत्रियों में प्रत्येक विविवाह में कुलदेवी कुलदेवता की पूजा और गंगाजली कलश स्थापना के ही "देवता लाने "की परंपरा में सती माताओं का अनंत पीढ़ियों तक का डोला लाया जाता है ।
विश्वास और भावना का बल ही हर धर्म की आस्था की गहरी पूँजी है ।
हर सौभाग्यवती और सौभाग्याकांक्षिणई राजपूत स्त्री "सतीमाताओं से वह संयम वह आत्मनियंत्रण वह कष्ट सहने की तितिक्षा और कुलमर्यादा रक्षा का धैर्य माँगती है कि चाहे प्राण जायें या हर तरह का दुख सहना पड़ जाये परंतु मान मर्यादा और सत्त की रक्षा हो ,,,यह वरदान बहुत कलेजा चीरते गीतों पूजा और प्रार्थनाओं के साथ आँसू भरी आँखों से माँगती स्त्रियाँ वह धधक वह दहक महसूसतीं हैं जो सती की समाधि और घर लाये गये उनके प्रतीकात्मक डोले में होती है ।
युग युग तक मुझे भी यही मान सम्मान मिलता रहे यही तड़प उस सौभाग्याकांक्षिणी और हर सौभाग्यवती के मन में रहती है । राजपूत वीर कौम इसीलिये तो है कि उनकी स्त्रियों में आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा पर जूझने लड़ने और मर मिटने का साहस रहा है ।
किसी भी तरह का हक किसी के भी पूर्वजों के चरित्र चित्रण का किसी भी तरह के मनोरंजन कला धनकमाऊ और दिखाऊगीरों को नहीं हो सकता ।
क्या ""जातिसूचक शब्दों के कहने से घाव लगता है ?तो फिर दलित एक्ट में जातिसूचक शब्द कहने पर अपराध क्यों घोषित है ?
क्या इस्लाम के प्रवर्तक पर फिल्म बनाने का साहस है वाॅलीवुड या हाॅलीवुड में ?
सच्ची या झूठी जैसी भी ??
सवाल क्यों न किया जाये कि भारतीय इतिहास में राजपूतों ब्राह्मणों बनियों के मानहनन के लिये हर तरह से फिल्मकारों ने सदी भर से जैसे षडयंत्र सा चला रखा है ??कहीं भी टी वी सीरियल हो या एक फिल्म ""मार्क्सवाद का रूप भारत में कहीं रूस की तरह ब्लैक एंड व्हाईट रहा ही नहीं तो दिखाते क्या मजदूर शोषित और मिलमालिक शोषक सो ,ले दे कर पंडित ठाकुर लाला को बलात्कारी चोर ठग लुटेरा डाकू भयंकर दुर्दान्त हत्यारा पापी नरक का मालिक आदि बनाने रहे ।
जबकि वास्तविक भारत के लुटेरे तानाशाह मिलमालिक पापी हत्यारे बाबर डायर जैसों पर न फिल्मवाले कुछ खास कर सके ना ही टीवी सीरियल वाले ।
क्योंकि संविधान बनने से पहले देसी राजा या तो भारत की आजादी में मार दिये गये थे या बरबाद हो चुके थे बचे खुचे राज्यों के पास एकीकरण के नाम पर संघभारत का सपना दिखाकर संविधान में बार बार संसोधन करके "आरक्षण "की दीवार खड़ी कर दी गयी थी और लोगों के दिमाग में काल्पनिक कहानियाँ राजा ठाकुर जमींदारों के पाप हत्या बलात्कार और निरंकुशता की ये टी वी फिल्म वाले ठूँसते रहे ।
आतंकवादी का मजहब नहीं होता कहने वाले लोग
हर
विलेन की जाति जरूर जानते रहे क्योंकि फिल्म में लड़की या तो पंडित बनिया लाला ठाकुर की या तो बर्बर अपराधी पंडित बनिया लाला ठाकुर होता आया है ।
बड़ी सफाई से पादरी पोप फादर को दयाा की प्रतिमूर्ति ,क्रिस्चियन महिला को दया की देवी दिखाया जाता रहा है ।
सवाल है
यदि
बिल्लू बारबर का नाम बदलना पड़ गया
गाने में से "अपने बिल्लू भयंकर "जोड़ना पड़ गया ,
तो
ये फिल्म वाले जाति क्यों दिखाते हैं पात्र की ? मजहब में दयालु पात्र सदैव ईसाई ही क्यों होता रहा है ?जबकि पूरे भारत को ढाई सौ सालों तक हत्या लूटपाट भुखमरी युद्ध सामूहिक नरसंहार का सामना ईसाईयों यानि अंग्रेजों के कारण करना पड़ा जो ""सफेद लोगों का करत्तव्य यानि भारत को सभ्य रिलीजन में ढालने आये थे ??
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कहीं भी सिवा आतंकवाद पर बनी एक दो डेयरिंग फ्लाॅप फिल्मों के कोई मुसलिम विलेन नहीं दिखाया गया ,मुसलिम पात्र तक पर फिल्म बहुत सावधानी से बनाई गयी , जबकि चंगेज खां ,अहमदशा अब्दाली से लेकर बहादुर शाह जफर तक के कार्यकाल में भारत ने भयंकर मारकाट जबरन धर्मपरिवर्तन मजबूरन परदाप्रथा बालविवाह और विवशत:सतीकरण सामूहिक आत्मोत्सर्ग का सामना किया भयंकर तोड़फोड़ लूटपाट विनाश मंदिर महल शिवालों का ध्वस्तीकरण भुगता ।
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क्षमा करे ,
यहाँ हमारा मकसद किसी जाति मजहब या रिलीजन धर्म कौम की निंदा या प्रसंशा नहीं है ।
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हमारा सवाल है कि इतिहास हम न रच सकते हैं न बदल सकते हैं , किंतु किसी भी परिवार वंश कौम जाति कुल कुटुंब राज्य या राष्ट्र का इतिहास सीधे सीधे जिन लोगों से जुड़ा है उन पर कुछ भी कोई भी कैसा भी कभी भी यूँ ही निजी कमाई मनोरंजन स्वार्थ प्रसिद्धि और कला के नाम पर मोटी कमाई के लिये कर सकता है ??संविधान में यदि अभिव्यक्ति की आजादी हक. है तो क्या आस्थाओं की रक्षा का हक़ नहीं ??????
सतियों की दर्दभरी कहानियाँ हर राजपूत कुल की आस्था हैं पूजा विश्वास धर्म हैं ,
गोगावीर
पाबूजी
जहरपीर
भैरोबाबा
बालाजी
खातीबाबा
हरदौल
वैसे ही पूज्यनीय और आस्था के तत्व हो चुके हैं जैसे दूसरे धर्मों में सेन्ट मैरी ,सेंट जोसेफ ,गुरूनानक,महावीर स्वाामी , आदि ,
आज लोग बहुत भ्रमवश
पद्मावती की कथा को फिल्मी परदे पर पद्मावत नाम से देखने को मरे जा रहे हैं ,यह सोचकर कि यह राजपूतों मुगलों की कथा है हमसे क्या !!
वे भूल रहे हैं कि यह भारतीय सती स्त्रियों के संस्कारों वीरों के अदम्य साहस बलिदान और विदेशी हमलावरों के बीच जीवित रह गये हमारे अक्षुण्ण भारत की सर्वसमाज की अस्मिता से मनमाने खिलवाड़ की फिर एक और हिमाक़त है ।
जिसको कितना भी विवश करके दबाया जाये सहने लायक नहीं बनाया जा सकता ।

सत्ता का अहंकार किये बैठे नेता भूल जाते हैं कि भारत में हर वर्ष दशहरे पर अहंकारियों के पुतले जलाये जाते हैं त्यौहार मानकर
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रही बात अभिनेत्रियों की
जो बहुत चीख रहीं हैं ,स्वतंत्रता कला अभिव्यक्ति के नाम पर ,,,वे उस महानायिकाा के चरित्र को कभी कल्पना तक में कैसे समझेंगी जिनके लिये चमड़ी भी यदि संभव होती तो फोटोशूट को सनसनी बनाने के लिये निकाल रखतीं ,भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व मनु और पद्मावती करतीं रहीं हैं ,कोई अभिनेत्री नहीं ,
इस देश में नर्तकी तक देशभक्त और सिद्धांतवादी होतीं रहीं हैं ,
उनके भी कुछ उसूल होते थे ...............और क्या कहें ,,,,,,,,दुख बेबसी क्षोभ में

©®सुधा राजे

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