Sunday 30 November 2014

सुधा राजे की अकविता :- 2. ओस और मैं।

जब पहली पहली सरदी और
पहली तनहाई का अहसास महसूस हुआ 'तब
कोई कहीं धुंध के पार है ऐसा महसूस
भी हुआ '
थोङा सा अलग औरों से तनिक हटकर एक
और बात थी कि हर बात यह
नहीं लगा कि कोई अजनबी नया आने
वाला है 'बल्कि कुछ अजीब
सी ही अनुभूति रही कि मुझे
ऐसा लगता रहा कि कोई है जो मुझसे
बिछुङ गया है 'कब और कहाँ तो याद
नहीं किंतु हर बार पीले फूल
गुलाबी सरदियाँ और लाल
बोगोनबेलिया के गुच्छों के बीच झाँकते
नीले धुँध भरे आसमान के दामन पर तैरते
सफेद रीते बादलों में उस बिछुङे हुये एक
अपने की सदा सुनाई देती रही और हर
शाम सूरज डूबकर अहसास कराता कोई है
जो कहीं यूँ ही मुझसे बिछुङ कर चुपचाप
बैठा यूँ ही मेरी तरह सूनी झील के तट पर
आखिरी नौका के किनारे लौटने तक चप्पू
की आवाज और सायों के काले होते जाने
तक एक टक क्षिज पर सुरमई होते जाते
आकाश के बीच पहला तारा निकलने तक
चुप बैठा मुझे महसूस करता रहता है '
हर बार एक अजीब सी गंध और
उसकी कशिश खीच लाती मुझे उगते सूर्य
को सतखंड महल की छत या पहाङी से
निहारने को और डूबते सूरज की किरणों के
झील में समाकर सिसकने को महसूस करने '
ये गंध हर बार
कविता बनी कहानी बनी और बनी कई
बार चित्र मूर्ति छवि और 'जब जब
लगा कि आसपास कहीं ऐसी ही कशिश
भरी गंध आ ऱही है '
मैं हर अजनबी को निहारने लग
जाती कहीं ये
तो नहीं कही वो तो नहीं '
किंतु वह कहीं नहीं होता ।
एक बार छलावे की तरह कोई
'चेहरा आकार लेता और छूते ही पानी पर
रंग के वलय की तरह विलीन हो जाता ।
मुझे जब यकीन हो गया कि यह गंध अनंत है
अदेह है और मेरे लिये कोई नहीं आने
वाला कहीं से '
मैं बहुत रोयी बहुत उदास हुयी और
अपनी गंध छिपाने के लिये एक आवरण ओढ़
लिया ',
बहुत बरसों बाद पता चला कि यह
ऐसा बिछोङा था जो कभी मिलन
नहीं लाता '
अब हर शाम वह हूकता दर्द लिये विरह
की हिलकी भरकर सिसकती झील नहीं '
पर मैं अब भी उस दर्द को खोजने लग
जाती हूँ जब सरदियाँ सुलगने लगती है
अलाव में और गरमियाँ बुझने लगतीं है
घङौंची भर पानी में '
मेरी महक छिपाती मैं जान चुकी हूँ ये
मेरा बिछोङा 'मेरे अपने ही वजूद से
मेरी अपनी गंध से कभी मिलन नहीं होने
वाला तलाश अब नहीं पर ये किसने
कहा कि ये मेरा भ्रम है?
हर सच प्रमाणित कब हुआ?
हर चीज जोङे में कब होती है? हर
बिछोङा मिलन कब लाता है ।
हाँ मैं जी सकती हूँ बिना किसी तलाश के
सरदियों की शाम और बरसात की भोर में
भी तनहा क्योंकि वह गंध अब मुझे अपने
भीतर से आने लगती है जब दर्द बढ़ने
लगता है मैं गुनगुनाने लगती हूँ तब
©®सुधा राजे।


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