सुधा राजे की अकविता :- 1. ओस और मैं।
जब आसपास के शोर में मैं डूबने लगती हूँ तब
'और जब अपने भीतर की विराट
खामोशी से मैं ऊबने लगती हूँ तब '
जब चाँद मुझे घूरने लगता है और तारे
मुझपर हँसने लगते है तब '
सहसा कहीं से एक टुकङा तनहाई आकर मुझे
थाम लेती है और आसमान भर एकान्त
मेरा हो जाता वहाँ जहाँ हर तरफ सब
कुछ न कुछ बोल रहे होते हैं मुझे अकस्मात
सुनाई देने लगती हैं
'घुटी हुयी सिसकियाँ और 'मेरे कदम मेरे
बेजान शरीर से निकल कर बाहर उङने
लगते हैं सलाखों को मोङकर
उंगलियाँ वीणा के तारों तक
जा पहुँचती है और पैरों में नूपुर बाँधकर
थिरकने लगता है दर्द 'झरने लगती है
कविता ऊँची प्राचीर पर बादलों से और
भीग जाता है सारा प्रासाद खंड
वहाँ जहाँ मेरा बेजान बजन पङा हिल
भी नहीं पाता मैं उङकर सारे ब्रह्माण्ड
में खोजने लगती हूँ उसे जो मुझसे
सदियों पहले कहीं बिछुङ गया था 'रंग
गंध शब्द रूप स्पर्श और अनुभूति से परे
'सारा वायुमंडल मेरी रीती बाहों के
देहविहीन अस्तित्व में समा जाता है यूँ
जैसे मैं हूँ अंतरिक्ष का सन्नाटा और आकाश
के पिंडों के टूटने का शोर एक आर्तनृत्य
एक आप्त रपदन के बाद की 'वीरानी में
जब कभी 'नीला सागर मेरे पैरों को छूकर
पीछे हट जाता है मैं विराट से पूछने से रह
जाती हूँ "मैं ही क्यों "क्योंकि मेरे उत्तर
बिखर जाते है शब्द के सुर बनकर
एकाकी मेरी ही तरह कण कण खंड खंड
घुलते हुये आकाश की तरह मैं हूँ
ही कहाँ ',एक अहसास के सिवा कुछ
भी तो 'रातरानी के सारे फूल पारिजात
की सारी कलियाँ झरकर महक उठतीं है
और सारी दूब भीग जाती है मेरे आँचल
की तरह 'फिर एक और गहरी स्याह रात
की रहस्यमयी बातें सुनकर चुप रह जाने के
लिये 'दूर तक भटकते बिछुङ गये झुंड से पँखेरू
की तरह अंधेरी रात में सफेद परों पर 'गंध
और दिशा की तलाश में 'परिपथ है कहाँ?
कुहू की कूज से न कभी सन्नाटे टूटते हैं न
जागती है कभी खामोश चाँदनी ओंस के
सिसकने से 'डूब कर रो लेना और फिर
चुपचाप सवेरे 'किरणों के साथ
खो जाना 'चाहे वह मैं हूँ या ये ओंस
'क्या फर्क पङता है
©®सुधा राजे
'और जब अपने भीतर की विराट
खामोशी से मैं ऊबने लगती हूँ तब '
जब चाँद मुझे घूरने लगता है और तारे
मुझपर हँसने लगते है तब '
सहसा कहीं से एक टुकङा तनहाई आकर मुझे
थाम लेती है और आसमान भर एकान्त
मेरा हो जाता वहाँ जहाँ हर तरफ सब
कुछ न कुछ बोल रहे होते हैं मुझे अकस्मात
सुनाई देने लगती हैं
'घुटी हुयी सिसकियाँ और 'मेरे कदम मेरे
बेजान शरीर से निकल कर बाहर उङने
लगते हैं सलाखों को मोङकर
उंगलियाँ वीणा के तारों तक
जा पहुँचती है और पैरों में नूपुर बाँधकर
थिरकने लगता है दर्द 'झरने लगती है
कविता ऊँची प्राचीर पर बादलों से और
भीग जाता है सारा प्रासाद खंड
वहाँ जहाँ मेरा बेजान बजन पङा हिल
भी नहीं पाता मैं उङकर सारे ब्रह्माण्ड
में खोजने लगती हूँ उसे जो मुझसे
सदियों पहले कहीं बिछुङ गया था 'रंग
गंध शब्द रूप स्पर्श और अनुभूति से परे
'सारा वायुमंडल मेरी रीती बाहों के
देहविहीन अस्तित्व में समा जाता है यूँ
जैसे मैं हूँ अंतरिक्ष का सन्नाटा और आकाश
के पिंडों के टूटने का शोर एक आर्तनृत्य
एक आप्त रपदन के बाद की 'वीरानी में
जब कभी 'नीला सागर मेरे पैरों को छूकर
पीछे हट जाता है मैं विराट से पूछने से रह
जाती हूँ "मैं ही क्यों "क्योंकि मेरे उत्तर
बिखर जाते है शब्द के सुर बनकर
एकाकी मेरी ही तरह कण कण खंड खंड
घुलते हुये आकाश की तरह मैं हूँ
ही कहाँ ',एक अहसास के सिवा कुछ
भी तो 'रातरानी के सारे फूल पारिजात
की सारी कलियाँ झरकर महक उठतीं है
और सारी दूब भीग जाती है मेरे आँचल
की तरह 'फिर एक और गहरी स्याह रात
की रहस्यमयी बातें सुनकर चुप रह जाने के
लिये 'दूर तक भटकते बिछुङ गये झुंड से पँखेरू
की तरह अंधेरी रात में सफेद परों पर 'गंध
और दिशा की तलाश में 'परिपथ है कहाँ?
कुहू की कूज से न कभी सन्नाटे टूटते हैं न
जागती है कभी खामोश चाँदनी ओंस के
सिसकने से 'डूब कर रो लेना और फिर
चुपचाप सवेरे 'किरणों के साथ
खो जाना 'चाहे वह मैं हूँ या ये ओंस
'क्या फर्क पङता है
©®सुधा राजे
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