सुध राजे की कविता-''प्रेमप्रपंच "

''प्रेमप्रपंच "
जब छोटे से घरघूले बनाने की रुचि जागती है तभी हो जाता है स्त्री को प्रेम ',अपने घर से अपने परिसर से अपने अनदेखे अनजाने वर से, मुझे भी हो गया था ',
पीङा '
???
ये प्रश्न का विषय ही कब है ',
स्त्री होओगी और दर्द नहीं सहोगी!!!!!!!
ये तो पर्यायवाची है एक दूजे स्त्री जैसा पीर का आनंदोत्सव मना ही कौन सकता है?
कौन हँस सकता है वेदना से सद्यस्नात देह ही नहीं मन अंतस विचार तक के साथ,
कठजिगरी ठठाकर हँसती ही न जाने कैसे है!!!
कभी परकाया प्रवेश की तरह स्त्री के वसन अशन तन मन को धारण करो तो सही, '
यूँ ही तो नहीं छल छल छलक पङते हैं अश्रु!!!
न जाने कब का संच्त बाँध थामे चल रही होती है किलकती नदी सी भरे भरे कलश सी, '
ये वेदना तो पालने से भी पहले पलने लगती है स्त्री मन में 'न जाने बेटा होगा न जाने बेटी 'जब सोचने लगती है निज जननी '
मैंने भी बस तभी से पालना सीख लिया था पीङा के शुक सारिका को मन के पिंजरे में, 'शब्दों के दाने दे देकर, '
प्रेम न करेगी तो क्या स्त्री स्त्री रहेगी?
अरे!!! इसे तो न मिले मानव तो पेङ पहाङ झरने छौने शावक पत्थर मिट्टी नदी झील छप्पर तुलसी, पंछी 'दरपण किसी से भी प्रेम कर लेगी,
कहाँ सँभाले इस छल छल छलकते प्रेम को,
किसी को तो करना ही है उसे प्रेम, पालने मे खिलौने से घर में बाबुल वीरन बगिया में गैया के छौने से और नैहर के हर कंकर से, माटी के गौरीशंकर से, 'कहीं कभी कोई न कोई मिल ही जाता है टकटकी लगाये निहारता, कब तक सँभाले मन 'किसी को तो देना ही था प्रायः दे ही देती है लङकी,
मैंने भी बस यूँ दे दिया था छल छल छल प्रेम से सराबोर मन कलश को ये भार उठ ही कब पाता है '
पता तो तब चलता है जब सारा का सारा कलश संचित मधुपर्क अमृत सा रेत के टीले पर ही रीत जाता है, रह जाते है खेत में चिढ़ाते खङे 'बिजूके 'न चिङियाँ काग भागते हैं न, उसके हिलने बोलने से रखवाले जागते हैं,
स्त्री तो है ही पथरगुङिया किसी न किसी को तो रखवाला समझने की 'कभी द्वार के स्वस्तिक कभी बिंदी सिंदूर से सजा मस्तिष्क,
कभी कभी सोचने लगती हूँ मैं भी गार्गी की तरह और, सोचती हूँ स्त्री की तो निर्मिति में ही कोई बङी भयंकर भूल है रचयिता की, मन जरा 'दुखते तन से मुक्त हुआ नहीं कि फिर खोजने लगेगी कहीं न कहीं से आए कोई पथिक और ले जाए ',
सब चली ही जाती है कहीं न कहीं मुझे भी जाना ही था ',मैं भी चली गयी '
प्रेम पीङा और बिछुङन के बीच भरे नयन स्मित अधरों पर लजीली शंकाएँ लिए सपने सँजोती, अलक्तक रची उंगलिओं पर मुँदरियाँ निहारती, 'स्त्री क्यों न मन तन हारती, हार से प्यार जो है हार श्रंगार जो है, किसी न किसी से प्रायः स्त्री हार ही जाती है जानबूझकर या धोखे से, 'मुझे भी हार में ही संसार लगा 'मैं भी हार गयी, '
परंतु हर हार एक दिन सूख जाता है या टूट जाता है या रख दिया जाता है 'संपत्ति की भाँति 'और जीवन जीने लगती है स्त्री प्रेम के मायाजाल में माया "कहकर '''जिससे दूर रहते हैं योगी जोगी परमार्थी ',वही स्त्री 'दीवारों सामानों और पदार्थों के लिए ठहरा दिया जाता है जिसे स्वार्थी ',
कभी कोई समझ ही नहीं पाया कि जिसने भी स्त्री को जीतना चाहा उसने ही 'हार कर आखिरकार 'कुछ भी नहीं पाया 'माया ही तो है!!! है न!!
मुझे भी माया लग गयी और मैं सँवारती रही घर खेलती पही घर और खोजती रही घर प्रेम
हाँ भूल ही गयी
मैं तो प्रेम की खोज में आयी है विनिमय क्या हुआ मन देकर प्रेम लेने का जो सौदा हुआ था उसमें हर बार लगा पुरुष को उसने देह को जीत लियी मन को बाँध लिया और पहना दिए स्वामत्व के असंख्य चिह्न ये 'स्त्र' मेरी है दंभ से भर गया अहमकार पीथे छूट गया प्रेम बाँध से निकलपङी पीङा की धार और बहने लगे सारे भूखंड यही था प्रेम के छल का दंड '
मुझे भी मिलना ही था प्रायः हर स्त्री को मिलता है,
मैं भी पिघल कर नदी बनकर बह गयी और बस स्त्री नहीं रही प्रेम रह गयी माया काया सब हो गये अदेह अशरीर आज मैं हूँ विशुद्ध प्रेम परिशुद्ध पीर ',
©®सुधा राजे
सुध राजे की कविता

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