अस्पृश्य मन ।

एक स्त्री को समझने के लिये एक पुरुष
ही चाहिये

एक पुरुष को समझने के लिये एक
स्त्री ही चाहिये ।
एक स्त्री स्त्री का मन समझ ले
ममता स्नेह भी रखे किंतु उसके अधूरेपन
का समाधान नहीं हो सकती ।
एक पुरुष के कितने ही गहन सघन
मित्र हों किंतु स्त्री के
बिना उसकी अधीरता नहीं जाती ।
यह निरा यौनाकर्षण नहीं है ।
यह निरा दैहिक संबंध नहीं है ।
ये बिडंबना ही है सामाजिक ताने
बाने की जहाँ स्त्री को एक
जोङी दार
स्थायी शैयाशायिनी पाकशाला प्रबंधक
के प्रतीक रूप में मढ़ दिया गया ।
किंतु अकसर स्त्री मन को वे पुरुष
ही अधिक समझ पाये जिनको उस
स्त्री के तन से कोई लोभ
नहीं था जिनका भोजन वह
स्त्री नहीं पकाती थी ।
मित्र शब्द के लिये कोई स्थान
छोङा नहीं गया कि आचरण का पतन
होते देर नहीं लगती और ये रिश्ते
मोहताज़ ही रहे नातों के शीर्षक में
आने के लिये,,
जब जब किसी ने
अपनी स्त्री को बिना देहालाप
की इच्छा के छुआ स्त्री मन की एक
गाँठ खुली पायी ।
स्त्री का अपना पुरुष कदाचित
ही कभी देहालाप से ऊपर भी स्पर्श
बिना स्त्री और
""मेरी ""स्त्री समझे बिना कर
सका ।
हर दिन एक पुरूष तो चाहिये
खिलखिलाने को
जी भर कर कंधे पर रो लॆने को ।
किंतु हर दिन देहालाप केवल
नहीं चाहिये ।
कुछ स्त्रियाँ देह से परे केवल मन
ही मन और कुछ स्त्रियाँ मन से
बिना केवल देह ही देह बनकर जब रह
जांयें तो कहना पङेगा कि कोई
समझा नहीं ।ये समझने वाला कोई
पुरुष ही होता किंतु ये "स्त्री देह
स्त्री मन की शत्रु बन गयी जो हर
समय स्त्री को देह समझा गया और
उसके मन को छुये अपनाये बिना देह से
रिश्ते बनाये गये कभी रिश्ते के नाम
पर कभी विवश करके ।
"""""""
जब स्त्री को देह
नहीं समझा जायेगा तब
महिला दिवस
मनाने की जरूरत भी नहीं रहेगी ।
अन्य़था
स्त्री सदैव अधूरी ही रहेगी कितने
ही आभरणों के तले उसका मन
बाग़ी ही रहेगा
और कोई भी पुरुष केवल छू
सकेगा कभी रोती कभी अभिनय में
इठलाती मुसकाती देह।
स्त्री को समझने के लिये पुरुष मन
चाहिये
देहबोध से परे """"
©®सुधा राजे

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