1. राजनीति के कामचोर हैं
अव्वल ये हर्रामखोर हैं
वे जो संसद में सोते हैं
वे हंगामे बोते हैं
वे जो आज ज़मानत पर हैं
ख़्यानत पर हैं लानत पर हैं
काला अक्षर भैंस बराबर
रिश्वत बाज़ी ऐश सरासर
ये ही तो हैं चौपट राजा
भाजी भात बराबर
खाजा
वे जो ए.सी.में सोते हैं
चुपके नोटो को ढोते है
वे जो पहरों में चलते हैं
पाँच साल पर घर मिलते हैं
वे जो जाते रोज विलायत
जिनकी तोंद फोङने
लायक
वे जो इंगलिश में बतियाते
जात पाँत की फिर
टर्राते
वे जो भौंके दंगा करने
रात गली को नंगा करने
वे जो सिर्फ विदेशी पीते
वे जो डायलिसिस पर जीते
जो कुनबे का ठाठ बढाते
ज़ुर्मों का क़द काठ बढ़ाते
वे जो करते बहुत शोर हैं
नेता ना हर्रामख़ोर हैं
राजनीति के वही चोर है
वे जो बाँहे रोज चढ़ाते
भाई भाई में बैर बढ़ाते
वे जो कुत्ते चमचे पाले
ओहदों पर है जीजा साले
वे जो झक सफेद कुरते में
टँगङी चबा रहे भुरते में
वे जो पंचसितारा रूकते
जिनके घर जेनरेटर फुँकते
पीते बस बोतल का पानी
हैं डाकू बनते हैं दानी
जिन पर लंबी ज़ायदाद है
जिनको पैसा खुदादाद है
वे जो बस उद्घाटन करते
वे जो रोज उङाने भरते
जिनसे मिलने आम न जाते
जिनको गुंडे लुच्चे भाते
जिनकी हैं अवैध संताने
बात बात पर अनशन ठाने
जनहित के मुरगी मरोर हैं
पृष्ठ दिखाते नचे मोर हैं
अव्वल ये हर्राम ख़ोर हैं
राजनीति के यही चोर हैं
2. अस्तित्व
का संघर्ष तो कब से प्रारंभ
हो चुका था!!!!!!
जब मुझसे पूर्व की कोख
को एक छल
सहना पङा था
छल
जो तुमसे पूर्व के पुरूष ने
कहा कि वह उसका है
जब
उसने विश्वास कर
लिया कि वह सत्य कह
रहा है
वह मान गयी
विश्वास की हत्या
तो तब भी हुयी थी जब
वो पूछे बिना ही उसके
पीछे चल दी कि कोई और
स्त्री को वह कहीं और
छलकर तो नही छोङ आया
कहीं और कोख
को कहीं और प्रेम
को किसी और विश्वास
को तो नही तोङ आया
उससे पहले के पुरूष ने
भी यही किया था उससे
पहले की स्त्री के साथ
छल
वह पुरूष होकर पुरूष से छल कैसे
करता
स्त्री के लिये
पुरूष से कैसे लङता
वह लङ सकता था केवल
स्त्री से
युद्ध तो पहले ही प्रारंभ
हो चुका था
जब
पुरूष से पहले के पुरूष
की संपत्ति कह कर प्राप्त
स्त्री छल बल से छीन
ली थी
वह लङा
परंतु स्त्री के लिये नहीं
मान
अपमान
अभिमान के लिये
पुरूष की संपत्ति में क्षेत्र
में कोई अतिक्रमण कर ले ये
पूरूष का अन्य पुरूषों के बीच
अपमान था
वह हार गया
स्त्री को पुरूष से छीनकर
जीतकर हार गया
हारना
पुरूष को सहन नहीं और
वह भी पुरूष से
पुरूष
किसी और पुरूष द्वारा छल
बल से छीन ली
भोग ली
या अभुक्त निर्दोष
या दोषी किसी स्त्री
को
पुनः छीनकर
जीतकर
पाकर पुरूष से सिर्फ
प्रतिशोध
लेता आया है
वही उसने किया
लेकिन
स्त्री को वह पुनः पाकर
भी अपना नही सकता था
यही
जूठन की अवधारणा
अभिमान हो गयी
अन्यथा
पुनः प्राप्त स्त्री में
दैहिक सुख उतना ही था
क्षुधा तो वह मिटाती
तृप्ति का सुख तो देती
कृतज्ञ भी होती
ये
कृतज्ञता की अवधारणा भी पहले
ही प्रारंभ हो चुकी थी
एक प्राकृतिक क्षुधा
जो स्त्री पुरूष दोनो में
थी
स्त्री की होने पर
व्यभिचार
पुरूष की होने पर उपकार
पुरूष ने ही बतानी प्रारंभ
कर दी
जब स्त्री को क्षुधा शांत
करने वाला पदार्थ मान
लिया और मान
लिया कि उसे भक्षण करके
वह उपकार कर रहा है
ये प्रकृति नहीं थी
क्योंकि स्त्री भी देह
थी पुरूष से दोगुनी
पुरूष हर स्त्री को भक्षण
करके तृप्त ही होता
परंतु हर बार
स्त्री की क्षुधा को तृप्त
कर पाना उससे संभव
नहीं हो सकता था
इसीलिये फिर
क्षुधा को स्त्री का कर्तव्य
बना दिया
क्योंकि हारना पुरूष
को सह्य नहीं था
और
स्त्री के जितना बल उसमें
नहीं था
वह कर सकती थी
संघर्ष अस्तित्व का
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संघर्ष निर्बल पुरूष का सबल स्त्री से
स्वयं पुरूष ने प्रारंभ किया
जब जङों के बिना वह नहीं
जी पाया
औऱ स्त्री स्थानांतरित की जाने के लिये तैयार हो गयी
पुरूष जान कर चकित था कि
स्त्री कहीं भी पुष्पित पल्लवित हो सकती थी पूरी
सामॆजस्यिता के साथ
निर्बल पुरूष स्त्री के हिस्से का भी भोजन करने लगा
स्त्री को पुरूष के बल के लिये
उपवास कराये जाने लगे
क्योंकि स्त्री में क्षुधा पर विजय पाने का बल था
निर्बल पुरूष
अपने उदर औऱ देह
मन और इच्छा किसी पर भी नियंत्रण नहीं रख पाया
जितेन्द्रिय
बनना स्त्री होने की पहली अवस्था थी
जिसे पुरूष ने चरम लक्ष्य माना
क्योंकि
हर बार वह स्त्री की जिजीविषा के सामने हार
गया
स्त्री ने दयनीय पुरूष को अपना बल दिया
वस्तुतः जब दो पुरूष लङते
उनकी स्त्रियों के बल का ही युद्ध होता
परीक्षा माँ के क्षीर की
प्रार्थनाओं आस्थाओं की
दिये गये आहार और पोषण की
विश्वास की ठेलकर भरी ऊर्जा की
ईश्वर स्त्री आप थी
औऱ पुरूष की हार के लिये पुरूष के ईश्वर को छल करके प्रतिद्वंदी पुरूष की स्त्री का बल भी चाहिये था छल से लेने गया
औऱ स्त्री ने पाषाण का कर दिया
तब से पुरूष का ईश्वर पाषाण होकर जीवित ईश्वर की शरण में पङा प्रायश्चित्त कर रहा है
निर्बल पुरूष को दैव की आवश्यकता थी
स्त्री दाता अपना ईश थी
क्योंकि पहले ही प्रारंभ हो चुका था संघर्ष अस्तित्व का
आती है
हवा कुछ थम सी जाती है
फ़िज़ां कुछ गुनगुनाती है
ये हदशिक़नी मेरे ग़म की
सितारों को रूलाती है
ये ज़ीदारी चुनांचे शाम
तक यूँ टूट जाती है
कहीँ साज़े-तरब की छेङ
सी इन सब्ज़ पत्तों से
कहीँ वो शायरी मेरे
लङकपन की सुनाती है
ये चुपके से करे
सरगोशियाँ जाते
परिंदों से
मेरे आँगन में
दाना देख
चिङियाँ चहचहाती हैं
मेरी नज़रे बचाकर सामने
वाली मुँडेरों से
वो लङका मुस्कराता है
वो लङकी खिलखिलाती है
कभी मेरे बगीचे में
गुलाबी फूल लेने को
गुलाबी सर्दियों में
वो बहाना लेके आती है
ये बादल बर्क़ ये बिजली
कोई किस्सा सुनाते हैं
ये बारिश हौले से धीमा नशा
जैसे पिलाती है
ये शामें ये धुआँ ये ज़ाम ये
तन्हा शज़र मिलकर
अज़ब मंज़र बनाते
सुधा कुछ भूल जाती है
सन्नाटे का आलम है
कुछ भी दिखता नहीं हाथ
को हाथ
रौशनी बेदम है
चलती खाली साँस
बताती ज़िंदा हूँ
अहसासों को
वो भी लेना भूल गये से
कभी लगे घुटता दम है
दूर भौंकने की आवाज़े
डरा रही कुछ पदचापें
खिङकी के उस पार चाँद
का पीला चेहरा मद्धम है
कहीं परे उस ओर सङक से
वाहन की धीमी घरघर
ध्यान लगा कर
सुनो रातरानी पर
गिरती शबनम है
एक अज़नबी पहचाना सा
शहर
और पूरे तन्हा
आसपास सोते चेहरों मैं
इक बेगाना आलम है
हवा बहुत बारिश होने के
बाद थकी सी लगती है
दर्द वही है दिल के भीतर
बस थोङा सा कम कम है
क्या है इस सुकून के भीतर
दुनियाँ में हूँ और नहीं
ये मेरा अहसास जंगलीपन
ही जैसे मरहम है
सोच शांत एकांत युँही बस
मर जायेंगे हम इक दिन
ये दुनियाँ ये शहर युँही
खामोश वहम है या हम है
बेमकसद तो नहीं नींद
ये खुली और लिखने बैठे
सुधा एक पहचाना सुख है
मैं हूँ बस मेरा ग़म है
जिंदग़ी कब की ग़ुज़र
गयी इस शहर से सोच लो
किस भरोसे पर नये सपने
सजाती हो सुधा
एक पूरा सिलसिला टूटी
बिखर गयी सोच लो
क्या करोगी साँस लेकर
और यूँ ही लिख के कहो
छल बयांबां मांदगी
किस किस के घर गयी सोच लो
इस शहर के लोग कब के मर चुके पूरी तरह
और ज़हरीली हवा गाँवों में भर गयी सोच लो
ला वतन है लापता
तू हो या कोई ज़िंस है
दर्द से रोती ये कोखें खुद डर गयी सोच लो
कोई भी तू इल्म हासिल कर कि कोई भी हुनर
सिर्फ़ औरत ही रहेगी जो बिखर गयी सोच लो
इतना ऊँचा सिर उठाओगी तो तोङी जाओगी
जब समर आये तो
डाली खुद ठहर गयी सोच लो
कौन बदले प्यार के
देता मुहब्बत झूठ है
घर असासा और बिस्तर
पर नज़र गयी सोच लो
जब खरीदी और बेची
जा रहीं हों औरते
तू नहीं तो और कोई
भी निखर गयी सोच लो
बस बगल को गर्म करने
के लिये इक़रार है
कौन सी तू रस्म लेकर
सँवर गयी सोच लो
ये हवस है पेट की
और ज़िस्म की भी उफ् सुधा
तू जनानी थी तो पैदा
क्यूँ न मर गयी सोच लो
ज़िस्म से आगे कोई दस्तूर
हो तो कह सुधा
दिल दिमाग़ो का
ज़ेहन बस क़हर भई सोच लो
फैसलाक़ुन तल्ख बातें
क्यों ये लिखती हो सुधा
नफ़रतों की आँख
खामोशी पसर गयी
सोच लो
हम खुद से डर जाते हैं
अंजाने लगते रिश्तों के
बीच कभी घबराते हैं
ज़िंदा लगते ज़िंस्म
और
वीरानी लगती आबादी
बहुत डूबकर जब भी देखा
चुपके से मर जाते हैं
कौन कहाँ क्यों कब तक??
सारे प्रश्न कौंचने लगते हैं
एक भरी पूरी दुनियाँ में
यूँ तन्हा कर जाते हैं
टुकङे टुकङे बँटी
मेरी पहचान खोखले
रिश्तों में
बोझिल होती साँस घुटन
की
सन्नाटे भर जाते है
दर्द मुझे सहलाते हैं
यूँ ही बहलाते हैं आँसू
रोज नहीं तो कभी कभी
इकदम
बेदम झर जाते हैं
हँसती और चहकती हस्ती
ऐसी भी हो सकती है
सबकुछ तो है कुछ
भी नहीं सा
बेघर बेदर पाते हैं
झूठे हैं ये महल हवेली बाग
बगीचे औऱ् महफ़िल
झूठी हैं ये तहज़ीबे
झूठे ज़र ज़ेवर नाते हैं
कौन धङकने भरकर
हमको भेज गया इस जंगल में
कौन चाहिये
क्या मुझको हम खुद
ही से थर्राते हैं
ईश्वर जो साकार
कभी लगता है बस मेरा भ्रम
है
या फिर ये संसार जिसे हम
छूने से कतराते हैं
सुधा उलझने अहसासों के
छोर पकङने लगती जब
गीत अक्षरों में भरने से
सचमुच डर डर जाते
है
कि ये पेवस्त पहलू में हर इक
खंज़र भुलाता है
उसी के वास्ते मरता है
जीता है मचलता है
जो अपना बन के तोङे औऱ्
तङपता छोङ जाता है
ये फ़रसूदा 1-ज़ख़म जैसे ज़ुनून-
ए-ला-बुदी पागल
ये फर्ज़न दर्द-ए-
क़ल्बी को फ़रीज़ां कह
बुलाता है
कुनूते कुर्बा हस्ती दम क़ुबूरत
सूफ़ियाना ग़म
चरांगां हसरते-
यारां मुहब्बत में जलाता है
हमारे ज़ाम पे उज़रत हमारे
नाम से नफ़रत
हमीं से फिर ये उल्फ़त
का तक़ाजा
तिलमिलाता है
ये दिल सारी क़यामत
देखकर फिर भी धङकता है
सुधा कमबख़्त किस उम्मीद
पे सपने सजाता है
समझ लो मैं हवा हूँ
जिसको पत्तों से
दिखायें जी
मेरी उल्फ़त सिकंदर है
लगाये लौ कलंदर है
सितारों की झनक झनकार
सुर छूकर बजायें जी
ज़मीं के घूमने से घूमता
खुर्शीद आशिक़ दिल
ये दिन और रात केवल
वक्त
जो घङियाँ बितायें जी
तपिश में है खुदाई
ध्यान में तपता हुआ
जोगी
हमन है बावलेआनंद में
आँसू बहायें
जी
हमारा इश्क़ लौ है दीप
की और धूप सूरज की
जलाती रौशनी देती
समंदर
को उङाये जी
ये मस्तानी दरद
की बर्फ़बारी ठंड
वादी की
कँपाती रात
तन्हाई
रजाई गर्म
पायी जी
ये तीखा दर्द है
औरत के पूरे ज़िस्म का दिल
का
तङप को आह में भर
गोद बच्चा मुस्कुराये जी
"सुधा"ये शायरी केवल
शरारे हैं के ओले है
बरफ में डूब गये
कभ्भी
कभूआतश नहाये
जी
भूलो हम गौरेया हैं
तेरे
बीजों को फैलाती नन्हीं मीत
चिरैया हैं
महाकाव्य
हो माना
तुमको नमन्
महाशय आदर से
वृंदावन
की बाला गोपी हम है
घर की तुलसा मैया हैं
दीपक हैं
हम पर्ण कुटी के
आप सूर्य चंदा पूजित
जगन्नाथ हैं आप
भवन
हम
घर के किशन कन्हैया है
सुधा बापुरी सरस्वती
भयी विलुप्त अति घाम
आशा भेषज ही सही
अलंकार विश्वास
जलप्लावन में ज्यों कुटी
पर्ण वर्ण सी त्रास
मधुर लगें कविता कटक
करूण भाव के गीत
कवि कैसे हूँ क्या कहे
लिखे कौन भवभीत
आशीषित पारस प्रबल
परनकुटी रैदास
लोहे की राँपी वही
रही विरागी पास
जानत हूँ कस बूझिये
का
है
मन
के कूल
सुधा समय की भूल है
समय सुधा प्रतिकूल
Sudha Raje
Sudha Raje
भागी क्यों होती सुधा
गरल वारूणी बीच
मरते सुआ जिआवनी
नैन नीर की सींच
Sudha Raje
पीङा से होकर परे औषध
के
विस्तार
मौन पीर कोई लिखे
बीहङ के उस पार
Sudha Raje
अक्षर में वाणी नहीं
ना वाणी में गंध
कौन बाँच कर गायेगा
शब्द भाव संबंध
Sudha Raje
आहत घावों की कङी
टूटी फूटी देख
कामनाये शुभ रह गयीं
वन के प्रस्तर लेख
Sudha Raje
बङे चाव से थे लिखे
मन के उत्कट भाव
आहत हो गयी लेखनी
रह गये केवल घाव
डर गये वो आज
माली की बदल
गयी जात
से
फल दिये पत्ते दिये
जिनको दवायें रात दिन
काटके रखने लगे वो
धर कुल्हाङी हाथ से
दुश्मनी इस बात की है
हम ने पाला है इन्हें
साँप से भी है विषैला
आदमी की जात से
अव्वल ये हर्रामखोर हैं
वे जो संसद में सोते हैं
वे हंगामे बोते हैं
वे जो आज ज़मानत पर हैं
ख़्यानत पर हैं लानत पर हैं
काला अक्षर भैंस बराबर
रिश्वत बाज़ी ऐश सरासर
ये ही तो हैं चौपट राजा
भाजी भात बराबर
खाजा
वे जो ए.सी.में सोते हैं
चुपके नोटो को ढोते है
वे जो पहरों में चलते हैं
पाँच साल पर घर मिलते हैं
वे जो जाते रोज विलायत
जिनकी तोंद फोङने
लायक
वे जो इंगलिश में बतियाते
जात पाँत की फिर
टर्राते
वे जो भौंके दंगा करने
रात गली को नंगा करने
वे जो सिर्फ विदेशी पीते
वे जो डायलिसिस पर जीते
जो कुनबे का ठाठ बढाते
ज़ुर्मों का क़द काठ बढ़ाते
वे जो करते बहुत शोर हैं
नेता ना हर्रामख़ोर हैं
राजनीति के वही चोर है
वे जो बाँहे रोज चढ़ाते
भाई भाई में बैर बढ़ाते
वे जो कुत्ते चमचे पाले
ओहदों पर है जीजा साले
वे जो झक सफेद कुरते में
टँगङी चबा रहे भुरते में
वे जो पंचसितारा रूकते
जिनके घर जेनरेटर फुँकते
पीते बस बोतल का पानी
हैं डाकू बनते हैं दानी
जिन पर लंबी ज़ायदाद है
जिनको पैसा खुदादाद है
वे जो बस उद्घाटन करते
वे जो रोज उङाने भरते
जिनसे मिलने आम न जाते
जिनको गुंडे लुच्चे भाते
जिनकी हैं अवैध संताने
बात बात पर अनशन ठाने
जनहित के मुरगी मरोर हैं
पृष्ठ दिखाते नचे मोर हैं
अव्वल ये हर्राम ख़ोर हैं
राजनीति के यही चोर हैं
2. अस्तित्व
का संघर्ष तो कब से प्रारंभ
हो चुका था!!!!!!
जब मुझसे पूर्व की कोख
को एक छल
सहना पङा था
छल
जो तुमसे पूर्व के पुरूष ने
कहा कि वह उसका है
जब
उसने विश्वास कर
लिया कि वह सत्य कह
रहा है
वह मान गयी
विश्वास की हत्या
तो तब भी हुयी थी जब
वो पूछे बिना ही उसके
पीछे चल दी कि कोई और
स्त्री को वह कहीं और
छलकर तो नही छोङ आया
कहीं और कोख
को कहीं और प्रेम
को किसी और विश्वास
को तो नही तोङ आया
उससे पहले के पुरूष ने
भी यही किया था उससे
पहले की स्त्री के साथ
छल
वह पुरूष होकर पुरूष से छल कैसे
करता
स्त्री के लिये
पुरूष से कैसे लङता
वह लङ सकता था केवल
स्त्री से
युद्ध तो पहले ही प्रारंभ
हो चुका था
जब
पुरूष से पहले के पुरूष
की संपत्ति कह कर प्राप्त
स्त्री छल बल से छीन
ली थी
वह लङा
परंतु स्त्री के लिये नहीं
मान
अपमान
अभिमान के लिये
पुरूष की संपत्ति में क्षेत्र
में कोई अतिक्रमण कर ले ये
पूरूष का अन्य पुरूषों के बीच
अपमान था
वह हार गया
स्त्री को पुरूष से छीनकर
जीतकर हार गया
हारना
पुरूष को सहन नहीं और
वह भी पुरूष से
पुरूष
किसी और पुरूष द्वारा छल
बल से छीन ली
भोग ली
या अभुक्त निर्दोष
या दोषी किसी स्त्री
को
पुनः छीनकर
जीतकर
पाकर पुरूष से सिर्फ
प्रतिशोध
लेता आया है
वही उसने किया
लेकिन
स्त्री को वह पुनः पाकर
भी अपना नही सकता था
यही
जूठन की अवधारणा
अभिमान हो गयी
अन्यथा
पुनः प्राप्त स्त्री में
दैहिक सुख उतना ही था
क्षुधा तो वह मिटाती
तृप्ति का सुख तो देती
कृतज्ञ भी होती
ये
कृतज्ञता की अवधारणा भी पहले
ही प्रारंभ हो चुकी थी
एक प्राकृतिक क्षुधा
जो स्त्री पुरूष दोनो में
थी
स्त्री की होने पर
व्यभिचार
पुरूष की होने पर उपकार
पुरूष ने ही बतानी प्रारंभ
कर दी
जब स्त्री को क्षुधा शांत
करने वाला पदार्थ मान
लिया और मान
लिया कि उसे भक्षण करके
वह उपकार कर रहा है
ये प्रकृति नहीं थी
क्योंकि स्त्री भी देह
थी पुरूष से दोगुनी
पुरूष हर स्त्री को भक्षण
करके तृप्त ही होता
परंतु हर बार
स्त्री की क्षुधा को तृप्त
कर पाना उससे संभव
नहीं हो सकता था
इसीलिये फिर
क्षुधा को स्त्री का कर्तव्य
बना दिया
क्योंकि हारना पुरूष
को सह्य नहीं था
और
स्त्री के जितना बल उसमें
नहीं था
वह कर सकती थी
संघर्ष अस्तित्व का
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संघर्ष निर्बल पुरूष का सबल स्त्री से
स्वयं पुरूष ने प्रारंभ किया
जब जङों के बिना वह नहीं
जी पाया
औऱ स्त्री स्थानांतरित की जाने के लिये तैयार हो गयी
पुरूष जान कर चकित था कि
स्त्री कहीं भी पुष्पित पल्लवित हो सकती थी पूरी
सामॆजस्यिता के साथ
निर्बल पुरूष स्त्री के हिस्से का भी भोजन करने लगा
स्त्री को पुरूष के बल के लिये
उपवास कराये जाने लगे
क्योंकि स्त्री में क्षुधा पर विजय पाने का बल था
निर्बल पुरूष
अपने उदर औऱ देह
मन और इच्छा किसी पर भी नियंत्रण नहीं रख पाया
जितेन्द्रिय
बनना स्त्री होने की पहली अवस्था थी
जिसे पुरूष ने चरम लक्ष्य माना
क्योंकि
हर बार वह स्त्री की जिजीविषा के सामने हार
गया
स्त्री ने दयनीय पुरूष को अपना बल दिया
वस्तुतः जब दो पुरूष लङते
उनकी स्त्रियों के बल का ही युद्ध होता
परीक्षा माँ के क्षीर की
प्रार्थनाओं आस्थाओं की
दिये गये आहार और पोषण की
विश्वास की ठेलकर भरी ऊर्जा की
ईश्वर स्त्री आप थी
औऱ पुरूष की हार के लिये पुरूष के ईश्वर को छल करके प्रतिद्वंदी पुरूष की स्त्री का बल भी चाहिये था छल से लेने गया
औऱ स्त्री ने पाषाण का कर दिया
तब से पुरूष का ईश्वर पाषाण होकर जीवित ईश्वर की शरण में पङा प्रायश्चित्त कर रहा है
निर्बल पुरूष को दैव की आवश्यकता थी
स्त्री दाता अपना ईश थी
क्योंकि पहले ही प्रारंभ हो चुका था संघर्ष अस्तित्व का
3. किसी को याद
सा करती हुयी जब शाम आती है
हवा कुछ थम सी जाती है
फ़िज़ां कुछ गुनगुनाती है
ये हदशिक़नी मेरे ग़म की
सितारों को रूलाती है
ये ज़ीदारी चुनांचे शाम
तक यूँ टूट जाती है
कहीँ साज़े-तरब की छेङ
सी इन सब्ज़ पत्तों से
कहीँ वो शायरी मेरे
लङकपन की सुनाती है
ये चुपके से करे
सरगोशियाँ जाते
परिंदों से
मेरे आँगन में
दाना देख
चिङियाँ चहचहाती हैं
मेरी नज़रे बचाकर सामने
वाली मुँडेरों से
वो लङका मुस्कराता है
वो लङकी खिलखिलाती है
कभी मेरे बगीचे में
गुलाबी फूल लेने को
गुलाबी सर्दियों में
वो बहाना लेके आती है
ये बादल बर्क़ ये बिजली
कोई किस्सा सुनाते हैं
ये बारिश हौले से धीमा नशा
जैसे पिलाती है
ये शामें ये धुआँ ये ज़ाम ये
तन्हा शज़र मिलकर
अज़ब मंज़र बनाते
सुधा कुछ भूल जाती है
4. आँख खुली है घुप्प
अँधेरा सन्नाटे का आलम है
कुछ भी दिखता नहीं हाथ
को हाथ
रौशनी बेदम है
चलती खाली साँस
बताती ज़िंदा हूँ
अहसासों को
वो भी लेना भूल गये से
कभी लगे घुटता दम है
दूर भौंकने की आवाज़े
डरा रही कुछ पदचापें
खिङकी के उस पार चाँद
का पीला चेहरा मद्धम है
कहीं परे उस ओर सङक से
वाहन की धीमी घरघर
ध्यान लगा कर
सुनो रातरानी पर
गिरती शबनम है
एक अज़नबी पहचाना सा
शहर
और पूरे तन्हा
आसपास सोते चेहरों मैं
इक बेगाना आलम है
हवा बहुत बारिश होने के
बाद थकी सी लगती है
दर्द वही है दिल के भीतर
बस थोङा सा कम कम है
क्या है इस सुकून के भीतर
दुनियाँ में हूँ और नहीं
ये मेरा अहसास जंगलीपन
ही जैसे मरहम है
सोच शांत एकांत युँही बस
मर जायेंगे हम इक दिन
ये दुनियाँ ये शहर युँही
खामोश वहम है या हम है
बेमकसद तो नहीं नींद
ये खुली और लिखने बैठे
सुधा एक पहचाना सुख है
मैं हूँ बस मेरा ग़म है
5. किस लिये उम्मीद के ये
गीत गाती हो सुधा????? जिंदग़ी कब की ग़ुज़र
गयी इस शहर से सोच लो
किस भरोसे पर नये सपने
सजाती हो सुधा
एक पूरा सिलसिला टूटी
बिखर गयी सोच लो
क्या करोगी साँस लेकर
और यूँ ही लिख के कहो
छल बयांबां मांदगी
किस किस के घर गयी सोच लो
इस शहर के लोग कब के मर चुके पूरी तरह
और ज़हरीली हवा गाँवों में भर गयी सोच लो
ला वतन है लापता
तू हो या कोई ज़िंस है
दर्द से रोती ये कोखें खुद डर गयी सोच लो
कोई भी तू इल्म हासिल कर कि कोई भी हुनर
सिर्फ़ औरत ही रहेगी जो बिखर गयी सोच लो
इतना ऊँचा सिर उठाओगी तो तोङी जाओगी
जब समर आये तो
डाली खुद ठहर गयी सोच लो
कौन बदले प्यार के
देता मुहब्बत झूठ है
घर असासा और बिस्तर
पर नज़र गयी सोच लो
जब खरीदी और बेची
जा रहीं हों औरते
तू नहीं तो और कोई
भी निखर गयी सोच लो
बस बगल को गर्म करने
के लिये इक़रार है
कौन सी तू रस्म लेकर
सँवर गयी सोच लो
ये हवस है पेट की
और ज़िस्म की भी उफ् सुधा
तू जनानी थी तो पैदा
क्यूँ न मर गयी सोच लो
ज़िस्म से आगे कोई दस्तूर
हो तो कह सुधा
दिल दिमाग़ो का
ज़ेहन बस क़हर भई सोच लो
फैसलाक़ुन तल्ख बातें
क्यों ये लिखती हो सुधा
नफ़रतों की आँख
खामोशी पसर गयी
सोच लो
6. डर लगता है
तनहाई से हम खुद से डर जाते हैं
अंजाने लगते रिश्तों के
बीच कभी घबराते हैं
ज़िंदा लगते ज़िंस्म
और
वीरानी लगती आबादी
बहुत डूबकर जब भी देखा
चुपके से मर जाते हैं
कौन कहाँ क्यों कब तक??
सारे प्रश्न कौंचने लगते हैं
एक भरी पूरी दुनियाँ में
यूँ तन्हा कर जाते हैं
टुकङे टुकङे बँटी
मेरी पहचान खोखले
रिश्तों में
बोझिल होती साँस घुटन
की
सन्नाटे भर जाते है
दर्द मुझे सहलाते हैं
यूँ ही बहलाते हैं आँसू
रोज नहीं तो कभी कभी
इकदम
बेदम झर जाते हैं
हँसती और चहकती हस्ती
ऐसी भी हो सकती है
सबकुछ तो है कुछ
भी नहीं सा
बेघर बेदर पाते हैं
झूठे हैं ये महल हवेली बाग
बगीचे औऱ् महफ़िल
झूठी हैं ये तहज़ीबे
झूठे ज़र ज़ेवर नाते हैं
कौन धङकने भरकर
हमको भेज गया इस जंगल में
कौन चाहिये
क्या मुझको हम खुद
ही से थर्राते हैं
ईश्वर जो साकार
कभी लगता है बस मेरा भ्रम
है
या फिर ये संसार जिसे हम
छूने से कतराते हैं
सुधा उलझने अहसासों के
छोर पकङने लगती जब
गीत अक्षरों में भरने से
सचमुच डर डर जाते
है
7. ज़माने के लिये रोता हुआ
दिल किस नशे में में है कि ये पेवस्त पहलू में हर इक
खंज़र भुलाता है
उसी के वास्ते मरता है
जीता है मचलता है
जो अपना बन के तोङे औऱ्
तङपता छोङ जाता है
ये फ़रसूदा 1-ज़ख़म जैसे ज़ुनून-
ए-ला-बुदी पागल
ये फर्ज़न दर्द-ए-
क़ल्बी को फ़रीज़ां कह
बुलाता है
कुनूते कुर्बा हस्ती दम क़ुबूरत
सूफ़ियाना ग़म
चरांगां हसरते-
यारां मुहब्बत में जलाता है
हमारे ज़ाम पे उज़रत हमारे
नाम से नफ़रत
हमीं से फिर ये उल्फ़त
का तक़ाजा
तिलमिलाता है
ये दिल सारी क़यामत
देखकर फिर भी धङकता है
सुधा कमबख़्त किस उम्मीद
पे सपने सजाता है
8. हमारा इश्क़ है क्या
आपको कैसे बतायें जी समझ लो मैं हवा हूँ
जिसको पत्तों से
दिखायें जी
मेरी उल्फ़त सिकंदर है
लगाये लौ कलंदर है
सितारों की झनक झनकार
सुर छूकर बजायें जी
ज़मीं के घूमने से घूमता
खुर्शीद आशिक़ दिल
ये दिन और रात केवल
वक्त
जो घङियाँ बितायें जी
तपिश में है खुदाई
ध्यान में तपता हुआ
जोगी
हमन है बावलेआनंद में
आँसू बहायें
जी
हमारा इश्क़ लौ है दीप
की और धूप सूरज की
जलाती रौशनी देती
समंदर
को उङाये जी
ये मस्तानी दरद
की बर्फ़बारी ठंड
वादी की
कँपाती रात
तन्हाई
रजाई गर्म
पायी जी
ये तीखा दर्द है
औरत के पूरे ज़िस्म का दिल
का
तङप को आह में भर
गोद बच्चा मुस्कुराये जी
"सुधा"ये शायरी केवल
शरारे हैं के ओले है
बरफ में डूब गये
कभ्भी
कभूआतश नहाये
जी
9. हो वटवृक्ष नमन् तुमको
मत भूलो हम गौरेया हैं
तेरे
बीजों को फैलाती नन्हीं मीत
चिरैया हैं
महाकाव्य
हो माना
तुमको नमन्
महाशय आदर से
वृंदावन
की बाला गोपी हम है
घर की तुलसा मैया हैं
दीपक हैं
हम पर्ण कुटी के
आप सूर्य चंदा पूजित
जगन्नाथ हैं आप
भवन
हम
घर के किशन कन्हैया है
10. तर्कशास्त्र ही तो नहीं
जीवन के संग्राम सुधा बापुरी सरस्वती
भयी विलुप्त अति घाम
आशा भेषज ही सही
अलंकार विश्वास
जलप्लावन में ज्यों कुटी
पर्ण वर्ण सी त्रास
मधुर लगें कविता कटक
करूण भाव के गीत
कवि कैसे हूँ क्या कहे
लिखे कौन भवभीत
आशीषित पारस प्रबल
परनकुटी रैदास
लोहे की राँपी वही
रही विरागी पास
जानत हूँ कस बूझिये
का
है
मन
के कूल
सुधा समय की भूल है
समय सुधा प्रतिकूल
Sudha Raje
Sudha Raje
भागी क्यों होती सुधा
गरल वारूणी बीच
मरते सुआ जिआवनी
नैन नीर की सींच
Sudha Raje
पीङा से होकर परे औषध
के
विस्तार
मौन पीर कोई लिखे
बीहङ के उस पार
Sudha Raje
अक्षर में वाणी नहीं
ना वाणी में गंध
कौन बाँच कर गायेगा
शब्द भाव संबंध
Sudha Raje
आहत घावों की कङी
टूटी फूटी देख
कामनाये शुभ रह गयीं
वन के प्रस्तर लेख
Sudha Raje
बङे चाव से थे लिखे
मन के उत्कट भाव
आहत हो गयी लेखनी
रह गये केवल घाव
11. धूप से डरते नही
थे जो शजर बरसात से डर गये वो आज
माली की बदल
गयी जात
से
फल दिये पत्ते दिये
जिनको दवायें रात दिन
काटके रखने लगे वो
धर कुल्हाङी हाथ से
दुश्मनी इस बात की है
हम ने पाला है इन्हें
साँप से भी है विषैला
आदमी की जात से
12.
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