संसार - नारी - जनसंचार
आधी आबादी की बात उठते ही आस-पास हर तरफ दिखाती महिलाओं की तरफ ज्यों ही ध्यान दिया जाता है, एक विसंगति साफ़ नज़र आने लगती है/ आज़ादी के छह दशक बीतने के बावजूद अब भी स्त्रियों की आज़ादी एक ''छद्म प्रदर्शन'' मात्र है/ बसों,रेलगाड़ियों,ऑटो,भीड़,केम्
पस हर जगह पसलियों पर उभरे माँस से टकराती ''नर'' कोहनियाँ जन-बूझकर उछाले गए ''यौन'' चेतना जगाने वाले भद्दे शब्द-स्वर-गलियां कपड़ों के थान के थान लपेटने वाली स्त्रियों तक का एक्स-रे करती भूखी-प्यासी फाड़ खाने को आतुर निगाहें और ये सब सहकर घरों में पिटतीं-कुटतीं-लांछित होतीं हर वक्त ज़िम्मेदारी से लादेन भारतीय स्त्रियाँ/
मीडिया जब स्त्री की आज़ादी की बात करता है, तो उसे पति-पिता और विरासत में मिली दौलत पर ऐशो-आराम से खुशबुओं में तर-बतर रहने वालीं क्रीमी लेयर पर चमकतीं सुंदरियां, फ़िल्मी-तारिकाएँ या बहुत हुआ तो दो-चार खिलाड़ी और राजनीतिक महिलाओं ही ''छपने'' और विज्ञापित होने के काबिल नज़र आतीं हैं/
मीडिया वह क्षेत्र है जहाँ अभी तक पुरुष वर्चस्व कायम है और अभी तक स्त्रियों पर जो सममाचार आते हैं वे या तो ''यौन-अपराध''
की शिकार स्त्रियों की चटखारे दिलाऊ मर्दाने नज़रिए से पेश खबरें होतीं हैं या फिर अर्द्ध-नग्न या पूर्ण-नग्न रूपसियों के फोटो और वक्तिगत जीवन के किस्से होते हैं/ मीडिया या तो स्त्रियों को बेच रहा है या फिर मीडिया स्त्री-देह दिखाकर मिलों-कारखानों के प्रोडक्ट्स के साथ अपन अखबार, चैनल या कोई और प्रोडक्ट बेच रहा है/
कुछ अपवाद छोड़ दें तो प्रारंभ से ही मीडिया डंडे-लेकर शिक्षक की भाँति स्त्री पर फतवे जारी करता है/ वही खबर जब पुरुष की होती है तो खबर होती है ; वही खबर जब स्त्री की होती है तो मीडिया ''याज्ञवल्क्य-चाणक्य-मनु-और और खलनायक सास बन जाता है/ स्त्री की ''आदर्श'' परिभाषा जब सामने उठती है तो आज भी मीडिया सीता, सावित्री, सुकन्या, अनुसुईया, तारा, माद्री, पद्मिनी ही की ही छवि में उसे कैद कर देता है/
वटसावित्री-अहोई-कर्वाचौथ-तीज-
मीडिया में लड़कियाँ आ रहीं है/ रिपोर्टिंग में ग्लैमर भरा जा रहा है/ और समाचार वाचक तथा एंकरिंग में उनकी खनकती आवाज़, झलकता वक्ष दिखाकर ''शोहदे दीवाने'' पैदा करके मीडिया का ब्यूटी ट्रीटमेंट किया जा रहा था/ मगर अफ़सोस स्त्री का तमाशा मीडिया वूमेन के रूप में भी खुले आम जारी है/
कलमधनी स्त्रियाँ जैसे ही स्त्री विमर्श की बातें करतीं हैं, उन्हें ''नारीवादी अछूत '' की श्रेणी में लाकर मेल-ईटर आदि की संज्ञा से डरा दिया जाता है/ दलितों का अम्बेडकर संघर्ष जिस तरह मायावती के अतिवाद में पलटा है, उसी तरह नारीवाद का वूमेन लिबरेशन आज ''स्ल्ट वॉक'' तक चल गया ; मगर - आधुनिके तुम नहीं अगर कुछ नहीं सिर्क तुम नारी -(पन्त)
हाशिये पर खड़ी है जस की तस आम भारतीय स्त्री/ घूँघट ना सही दीवारें हैं बुरखे बदस्तूर जारी है/ और धरे रहे जातें हैं हैं सारे स्त्री अधिकार और कानून ; सड़ती लाशें अब जवान नहीं मासूम अबोध बलत्कृत लड़कियों की हैं/ स्त्री को उपकृत करने का ढकोसला करता मीडिया इस मुकाम तक ले आया सोच को कि गर्भवती स्त्री की सीट पर बैठने वाले भारतीय पुरुष अब उसके पेट में बच्चा लेकर क्यों घूम रही है का मज़ाक बना कर बेशर्मी से बैठे रहतें हैं/
पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर खेत खलिहानों की धुप से दफ्तरों और खदानों के अँधेरे तक स्त्रियाँ बराबर परिश्रम कर रहीं हैं; जननी स्त्री शरीर कि प्राकृतिक अतिरिक्त जिम्मेदारिओं के साथ/ मगर इनमे मीडिया रिझाऊ ग्लैमर नहीं है/ सो वे अपने पल्लू से पसीना पोछ्तीं स्क्रीन और कागज़ से गायब हैं/
मेरी यह लघु लेख-- मुझ पर स्त्री होने का के प्राकृतिक वरदान और अभिशाप से उत्रिटण होने कि एक लघु कोशिश है/ जैसे दिन भर कि थकान के बाद एक प्याला कॉफी और एक पत्रिका जो बेटी ने लाकर दे दी हो/ मेरे अपने कुछ पल मैं इन में देखतीं हूँ/ सिन्धु सभ्यता से अंतरिक्ष तक अपनी कौम की यात्रा , अपने नारी होने के नाते , नारीवादी होने के नाते छोटे-बड़े संघर्ष अनुभव और मीडिया से खींचा इन सबका
कोलाज़... एक टूटा दर्पण
उपयोगिता की बात :- बस यही नहीं हैं अभी, ये एक पगडण्डी है ; गाँव की किशोरी झाड़ीयों को रोंद कर रोज स्कूल जाने से बनी, पनिहारिनों के नंगे पैरों से कुचली मती और धोबिनों , चैतुओं और फेरीवालिओं के कदमों से पक्की हो चुकी जिन पर से चल कर कॉलेज , दफ्तर , और फैक्ट्री जाति शिक्षिकाएं राजपथ पर आयें जाएँ / ये राजपथ नहीं है / मगर उस पर जाने वाले प्रमुख मार्ग से जुडी एक पगडण्डी है / हवा में मेरे लेखकीय मानसिक मकान पर तंगी एक कंदील है जिससे इस कोने तक आती जातीं कलाम्वालियाँ कुछ दूर तक बिना झिझक के चल सकें /
ये एक प्रेरणा है / अभी काम बाकी है "गुईयाँ !" अभी तो बस चंद अक्षर लिखे हैं उठो अपना इतहास खुद लिखो / स्त्री हुए बिना स्त्रीत्व को परिभाषित करते मीडिया से छीनकर खुद अपना मीडिया बनो ; स्त्री होने मात्र से किसी की समझ नहीं आता दर्द स्त्रीत्व का / उन सबकी तस्वीर और परिभाषा के लिए स्त्री होकर फिर स्त्रीत्व को समझ कर , फिर अपना मीडिया होकर निरपेक्ष नहीं स्त्री सापेक्ष होकर लिखो / सच के वे सरे अँधेरे कोने जहाँ कैमरा नहीं जाता जहाँ स्याहियां नहीं करतीं काम कह दो छद्म मीडिया से ------
तुम नहीं लिख पाओगे मेरी कहानी
ये धधकती आत्मगाथा तो मुझे खुद ही
ज़मीं से आसमानों के सफों पर खोदके लिखनी पडेगी
और ये पन्ने कलम ये स्याहियां काफी नहीं
ये धधकती आत्मगाथा तो मुझे खुद ही
ज़मीं से आसमानों के सफों पर खोदके लिखनी पडेगी
और ये पन्ने कलम ये स्याहियां काफी नहीं
मुझको समूचा रक्त ही
नर- भेड़ियों के वक्ष से लेना पड़ेगा
नर- भेड़ियों के वक्ष से लेना पड़ेगा
हाथ में चूड़ी नहीं तलवार से पैनी कोई
अब धार देदो ये कलम के अक्षरों की
बात ही बिलकुल नहीं, हर शब्द गूंगा
वर्तनी भाषा विवश मज्जा- लहू से
भीगती छैनी पड़ेगी मेहंदियाँ रख दो
'सुधा' में तब कहीं लिख पाऊँगी
'नारी-अयन','त्रियवेद','वनिता- काव्य'
'योषित-हास' जो सच को कथेगा
आँख में काजल नहीं,आँसू नए संकल्प होंगे
हक मिलेंगे ठीक या हम छीन लेंगे अब
सतत ब्रह्माण्ड आधा खिलखिलके;
ये मेरी प्रस्तावना का सार
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