कहानी
आधी रात की पूरी भोर
सुधा राजे 'दतिआ 'मध्य प्रदेश '
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इस कहानी में कुछ भी रोचक है तो बस ये है की ये शब्दशः सत्य है। हो सकता है की आगे लिखते लिखते मैं भावुक या अति यथार्थ में आकर कुछ अश्लील लिख दूँ या ये किस्सागोई की सीमा से बहार आकर लंबा कथानक बन जाये ; परन्तु जीवन में भी तो सब कुछ शालीन , और ग्राह्य भी तो हर बार नहीं होता न ?
न ही सब कुछ सही और सामान्य होता है हर बार !! बस या भी एक असामान्य जीवन की सीधी कहानी है।
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भाग एक
दो गाड़ियां एक यात्रा
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रात गहराती जा रही थी ,और मेरी व्याकुलता भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी। हर तरफ अंधकार था न केवल स्टेशन के आसपास ,बल्कि मन में ,जीवन में भी ,जल रही तो प्लेटफॉर्म पर पीली सी रौशनी और ह्रदय में जिद कि ,जो भी होगा अब से तो अच्छा ही होगा। मुझे बार बार मार्क्स का वाक्य याद आ रहा था 'तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है' तो जो भी होगा पाना ही होगा अब तो। राजू ने दो अलग अलग रेलगाड़ियों के दो अलग अलग समय के टिकिट बुक किये थे जो कन्फर्म नहीं थे परसों तक। कल ही राजू ने फ़ोन करके बताया कि टिकिट कन्फर्म हो चुके हैं दोनों ही। मुझे हर हाल में निकलना ही था। सदा सदा के लिए परन्तु ये बात सिर्फ मुझे और राजू को पता थी। नहीं मालूम था की कहाँ से आगे का व्यय चलेगा , कैसे नयी अनजानी जगह पर अपना जीवन फिर से नए सिरे से प्रारम्भ करेंगे , परन्तु बस ये ही संकल्प था कि ,अब से तो हर हाल में जो भी होगा बेहतर ही होगा। भय और पीड़ा सब चरम तक पहुँच कर समाप्त हो चुके थे। थी तो बस व्याकुलता कि कोई रुकावट न आ जाये। भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धामपुर का रेलवे स्टेशन जिस क्षेत्र में बरसों में कभी कभार ही विद्युत् प्रकाश से उजाला हुआ होगा अन्यथा इस पूरे ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बिजली आना त्यौहार की भांति हर्ष का शोर करने वाला यदा कदा दुर्लभ अवसर रहता आया है। भयंकर मच्छर ,आवारा कुत्ते , जेब कतरे , स्त्रियों के साथ बुरा व्यव्हार करने वाले लफंगे, आवारा लड़के और साधु या मौलवी के वेश में घूमते अपराधी आतंकी महानगरों के फरार मुजरिमों से भरा रहने वाला ये स्टेशन जहाँ दिन में भी स्त्रियाँ आते जाते डरतीं हैं और बिना किसी पुरुष को साथ लिए उस जगह दो पल बैठना संकट ही नहीं छेड़छाड़ पूछ ताछ का अधिकार लोगों के लिए बन जाता है ; मुझे विवश होकर किसी को तो गाड़ी आने तक साथ रखना ही था , सो मैंने उसे ही लिया जिससे ,दूर बहुत दूर जाने का संकल्प ले लिया था। वह लगतार धमकियाँ गलियां चेतावनियां दे रहा था और मैं सुन रही थी ये सोच कर बस कुछ देर और फिर इस भयानक बस्ती से वयक्ति से सदा सदा को मुक्ति ।
रेलगाड़ी दो और दोनों ही विलम्बित ,तो सोचा की चलो वातानुकूलित वाली है उसमें ही बैठेंगे ,जैसे एक सदी बाद हर छोटी से छोटी चीज जी लेना चाहते थे हम । रात के एक बजे हम दोनों डिब्बे में चढ़े तो पूरे अधिकार से अपने क्रमांक वाली सीट पर बैठ गए। एक स्टेशन आगे आते ही टी टी ने संदेह से पूछा
'आपकी ही सीट है ?''
'हां क्यों ' मैंने पूरे आत्म विश्वास से उत्तर दिया।
''क्योंकि इस स्टेशन से तो हमारी कोई सवारी है ही नहीं !
मैंने पूरे अधिकार से टिकिट दिखाए ,
''मेम ये तो कल की निकल चुकी गाड़ी के हैं ! आपको टिकिट लेनी पड़ेगी या उतरना पड़ेगा।
ओह्ह ! अब? व्याकुल होने ही नहीं भयभीत होने की बारी मेरी थी। हे ईश अब नहीं।
वास्तव में हुआ ये कि न राजू का ध्यान गया न मेरा कि मुझे उस बस्ती से तो रात के आठ बजे से पहले ही निकलना था क्योंकि, फिर कोई वाहन वहां नहीं मिलता टेम्पो अड्डा भी अंधकार और शराबियों भिखारियों का अड्डा बन जाता है ,परन्तु मेरी गाड़ी तो रात के बारह बजकर दस मिनट पर आने वाली थी जो दूसरी तिथि दिनांक हो जाता। यही हुआ भी।
मैंने दूसरे टिकिट दिखाए कि देखिये मुझे हर हाल में ये यात्रा करनी थी तो मैंने दो दो गाड़ियों के टिकिट लिए तब टी टी को विश्वास हुआ और बोला कि आप लोग अगले स्टेशन पर उतर जाओ और आपकी दूसरी गाड़ी एक घंटे लेट होने के कारण मिल जाएगी अन्यथा ये और कहीं नहीं रुकेगी आपको प्राम्भ से अंत तक का टिकिट लेना पड़ेगा।
मुझे पता था कि वह मुझ पर दबाव बना रहा था ताकि कुछ रुपया ऐंठ सके ,परन्तु मेरे पास दूसरी गाड़ी का विकल्प था तो मैंने मुन्ने के साथ उतरने का निर्णय लिया।
अगला स्टेशन पहले वाले से भी बहुत जंगल गाँव अंधकार में था। हर तरफ आवारा कुत्ते गन्दगी ऊपर से दाढ़ी वाले पुरुष जो बहुत घूर -घूर कर देखने के के अलावा पूछताछ के चक्कर में भी थे। ऐसी ही तो जिंदगी जियी इतने बरसों से। हर तरफ वही लोग जिनके लिए एक पेंट शर्ट , कटे बालों वाली स्त्री कौतूहल का कारण ही नहीं अपितु हेयता का भी विषय होती है। जिस क्षेत्र में दिन में तक कोई स्त्री अकेली नहीं निकलती वहाँ रात के तीन बजे सुनसान अँधेरे से स्टेशन पर अत्याधुनिक वेश भूषा में अकेली स्त्री वह भी एक छोटी सइ बच्चे के साथ !
लोग बार बार मेरे आस पास चकराने लगे थे। मैंने सुरक्षा के लिए स्टेशन मास्टर कक्ष के पास पुलिस केबिन के निकट पड़ी बेंच पर अपना सामान रखा और पूरे आत्मविशवास से एक उच्च अधिकारी से इंग्लिश में वर्तालाप प्राम्भ करना प्रारम्भ किया। भारत में जो काम गोली नहीं कर पाती वह अंग्रेजी बोली करती है ,यह मेरा बार बार का अनुभव रहा है । सब दूर चले गए और वही अधिकारी एक कुली को आवाज़ देकर समझने लगा की मैडम को गाड़ी में ठीक से बिठा देना इनका डिब्बा इस जगह आकर रुकेगा। नजीबाबाद जैसे हम लोग किसी भयानक जगह थे हर तरफ से लोग चोरी ,छेड़छाड़, सवाल,और उत्सुकता से तकते कौन हो यहाँ क्यों हो जैसे हम कहीं किसी और ही ग्रह से आये अजीब प्राणी हों।ये वह जगह है जहां से लगातार महिलाओं के अपहरण हत्या , चोरी राहजनी ,जेबकतरी ,देहव्यापार के लिए स्त्री बच्चे बेचने खरीदने ही नहीं बल्कि आतंकी छिपे होने तक के पक्के समाचार मिलते रहे हैं। जल में रहकर मगरमच्छ से बैर भी तो नहीं कर सकते इसीलिए कभी अपना पता तक किसी कविता में तक देकर नहीं छपने भेजा। मेरा पच्चीस वर्ष का अज्ञात वास ऐसे ही क्षेत्र में बीत गया।
भोर के चार बजे पुनः घोषणा हुयी कि हमारी गाड़ी और बिलम्बित हो गयी है। कुली का पता नहीं था तो मैंने और मुन्ना ने ही सारा भार घसीटते हुए ले जाकर संम्भावित जगह रखा जहाँ की हमारा डिब्बा रुकना था। गाड़ी अंततः प्रातः के आठ बजे आयी। पूरे दस घंटे देरी से। जैसे सबने मिलकर एक षड्यंत्र कर रखा था मेरे विरुद्ध की में कहीं जा न सकूँ। परन्तु अब नहीं तो नहीं मैंने दूसरी तिथि में यात्रा प्राम्भ की। वह सोमवार का दिन था और ये मंगलवार। कुली तब आया जब हम पूरी तरह गाड़ी में चढ़ चुके थे और एक अंतिम भारी समान चढ़ा रहे थे उसने सोच कि अब पैसा नहीं मिलेगा तो ताना मारने लगा कि मैंने तो आपके चक्कर में दूसरी सवारी छोड़ी आप ने क्यों उठाया , मैंने चुपचाप रूपये निकाले और उसके हाथ पर रख कर कहा भाई ले लो , नहीं दिखे तो मुझे गाड़ी निकलने का भय था इसिलए बहुत घसीट कर लाये सामान परन्तु तय किया था तो लो। वह सलाम करके चकित सा देखता चला गया , जैसे कि उसने पक्का मन कर लिया था कि रूपये तो मिलेंगे ही नहीं। हालाँकि मैं शनिवार को निकलना चाहती थी , सदा सदा के लिए पक्का निकालना हो जिससे ।
गाड़ी में सीट मिलने के बाद एक गहरी शांति थी तो दूसरी चिंता भी कि अब क्या होगा। मेरेपास न तो कोई आय स्रोत था अब न ही कोई परिचित क्षेत्र , न ही कोई बहुत बड़ी बचत राशि , कि कुछ दिन तो नयी आजीविका की खोज केलिए समय मिल जाये। बस एक कमरा अवश्य खोज कर पिछली यात्रा में तय कर लिया था कि आकर रुकना है और उसका एक माह का किराया भी अग्रिम देकर चाभियाँ राजू को देकर चले आये थे। गैस और स्टील चूल्हे का नया कनेक्शन भी ले ही लिया था। इसीलिए एक माह तक की निश्चिंतता तो थी ही। राशन के लिए थोड़ी सी बचत राशि भी राजू के पास ही भेज दी थी क्योंकि भय था पता नहीं निकले निकलते कहीं छीनी न जाये जैसा की अनेक बार होता रहा था।
(क्रमशः ) जारी।
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भाग दो
अनंत यात्रा पर लापता सफर
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रेलगाड़ी जैसे जैसे आगे की और भागने लगी मेरा मन दोहरी व्यकुलता से छटपटाने लगा। आह पूरी आयु व्यर्थ गयी ,न तो मैं स्त्री धर्म पालन कर सकी न ही अपने एकमात्र लक्ष्य साहित्यकार बनने को पूरा कर सकी। अहह कैसा निरर्थक जीवन सर्वगुण संम्पन्न सुंदर स्वस्थ आकर्षक शालीन और हर तरह से योग्य स्त्री होकर भी मैं न एक पत्नी,न एक बहिन ,न एक अच्छी माँ ,न एक प्रेमिका, न एक सखी ,यहाँ तककि एक सामान्य जीव की भी तरह नहीं जी सकी !!
ओह्ह ईश्वर तूने मुझे बनाया ही क्यों?
कहाँ तो मैं सुकन्या को आदर्श मानकर च्यवन की सेवा पूजा और सब भांति स्वयं की सब अस्मिता भुलाकर घोर देहात में घोर प्राचीन जंगली ग्रामीण गृहणी जीवन तक के लिए स्वयं को ढालती जा रही थी। अपितु पूरी देहातिन गँवार ग्रामीण बन ही चुकी थी। भोर तीन बजे ही नींद त्याग कर हत्था हैंड पंप से पानी भरना , फिर गाय भैंस बैल बछड़ों के देखभाल करना, पूरे ग्यारह सौ वर्ग मीटर बड़े घेर गेंवड़े की झाड़ू लगाना , स्वयं ही लकड़ियां काटकर वह भी मात्र दराँती से , बड़े -बड़े पेड़ बांस की सीढ़ी पर चढ़कर काटना ,फिर लकड़ियां अधपर गलियारे में टांगना ताकि सूख सकें ,फिर स्वयं ही मिटटी खोदकर सानकर चूल्हे अंगीठी बनाना ,पोतना -लीपना मिटटी लगाना और धुएं में भोर ही भोर में दाल चावल रोटी सब्जी चटनी सलाद चाय ,बच्चों के टिफिन , खेत वालों को भोजन देना ,फिर थपकी से गंदे मैले चिकटे कपडे धोना ,काले बर्तन मांजना , पोंछा ,और फिर ट्यूशन ,सिलाई ,बुनाई, कढ़ाई, करना ,अपना और बच्चों का सारा व्यय निकलना ,फिर भी रोज उस व्यक्ति के पाँव दाबना मालिश करना और हर तरह से देख-रेख करना जो ,कभी ये तक नहीं पूछता कि तुमने भी कुछ खाया ?
२५ वर्ष किसी ने यदि कभी परवाह की तो राजू ने .या टैंक होश आया तो तेज ने ,जबसे उसने बोलना सीखा जब जब घर पर होती तो जिद करती ''माँ आप भी खाओ '' .
एक वही अब भी मेरे लिए समुद्र के जहाज को दीपस्तम्भ की भांति साहस बनाये रखने का कारण बनी हुयी थी। हाँ मुझे जीवित रहना है उन भोले निर्दोष प्राणियों के लिए।
मैंने मन न होते हुए भी मुन्ने के साथ कुछ भोजन लिया जो मैंने चुपचाप बनाकर रख लिया था सदा की भांति जब भी कोई मेरे साथ होता यात्रा में मुझे याद्र रहता कि भोजन बनाकर अवश्य रखना है।
मुन्ना आनंद ले रहा था यात्रा का। उसको तो अपने ' बाउ ' के साथ दद्दू के साथ रहने का अवसर मिल रहा था वह इसी से बहुत उत्फुल्ल था। बाउ यानि बड़ी दीदी 'राजू और दद्दू यानि मंझली दीदी 'तेज'।
बस इतनी ही मुन्ने की दुनिया थी। परन्तु मेरे सामने प्रश्नो का जंगल था और था आजीविका का संघर्ष। एक माह तो जैसे -तैसे निकल जायेगा आगे क्या होगा ?
मुझे पहले ही दिन से कोई न कोई तलाश करनी थी। न्यायालय वर्षो से नहीं देखा था , पत्र पत्रिकाओं की रद्द्दी तक दुर्लभ हो चुकी थी उस बस्ती में , कोई पढ़ा लिखा आदमी तक नहीं देखा था जैसे एक सदी से। मैं वकील थी ,मैं पत्रकार थी मैं कवि लेखक , अध्यापक थी परन्तु केवल पत्रों प्रपत्रों पर।
वास्तिविकता में मैं केवल बंदिनी थी। घोर श्रमिक भी दोपहर विश्राम ले लेता है। बंधुआ मजदूरनी भी मेला सिनेमा तमाशा नौटंकी फ़ाग मंदिर नदी सरोवर सखी सहेली विवाह बारात भोज दावत में चलीं जातीं हैं किन्तु , मैं एक अनोखी ही कहानी कि मुझे पूजा तक वह भी घर के भीतर , करने की भी मुहलत नहीं थी। बरसों हो गए थे मैंने नाश्ता नहीं किया , कभी रात को भोजन नहीं किया , केवल जैसे -तैसे सब काम काज निपटा कर जब बच्चे विद्यालय से आते उनको खिलाकर तीन से पांच के बीच ही हड़बड़ी में बची खुची रोटी भात चटनी या बासी सब्जी दाल के साथ कहती रही बिना किसी उपालम्भ के।हर समय दर ही लगा रहता कि अब कोई आया और कुछ झगड़ा हुआ। ऊपर से ट्यूशन की अनेक पालियाँ थीं फिर मेरा ऐसा शुभचिंतक अब था ही कौन जो देखता कि मैं क्या और कब खाती हूँ। इतने पर भी तो लगातार ताने ऊपर से घटिया गन्दी गलियां मिलते रहते थे
''हरामज़ादी रंडी कुतिया छिनाल बदमाश खुद तो सुबह से ठूंसकर बैठ गयी होगी और हमको अब दे रही यही है !!
ये नित्य के कहानी थी। पहले पहल बहुत रोये , सिसके ,क्रोध भी आया , फिर विवशता के पर्वतों ने मुंह में कर्कशता और हाथों में बेदर्द तेजी भर दी। मैं पीठ दर्द से कराहने तक पसली में तेज टीस उठने तक कमर में भयंकर टूटन होने तक , बुखार में तपता शरीर और छिले कटे कत्थई पड़े मारपीट के अत्याचारों के चिह्न दुखते अंगों के साथ स्वयं पर ही बहुत निर्दयी होकर सारे काम करती जाती थी। जैसे मुझे स्वयं से कोई वास्ता ही नहीं था। हथेलियों में सचमुछ की ठेठें पड़ चुकीं थी। रंग सलोने से गेहुंआ होते होते काला हो चुका था। चेहरे पर बहुत अमिट गहरीं झाइयां हो गयीं थीं और मुझे अब कभी अपना चेहरा देखना दर्पण में तनिक भी भला नहीं लगता था। मैंने दर्पण देखना ही त्याग दिया पुराणी तस्वीरों को याद रखती और सोच लेती कि मैं अब भी बुरी नहीं लगती हूँ । अपने बाल स्वयं ही काट लेती और बेटियों के मैं काट देती। इस तरह मैं केश कर्तन कला में भी निपुण हो चुकी थी। बहुत कम बार नाई की दुकान पर जाना हुआ २५ वर्ष में दो चार बार। जब भी जाते वह कहने लगता
'बड़े दिन हो गए बाल खराब हो गए हैं'
ब्यूटी पार्लर और मैं !! असंम्भव।
विवाह तक की तो मैंने स्वयं ही मेहंदी अपने ही हाथों दोनों हाथों में लगा ली थी। तैयार भी स्वयं ही हो गए थे , एक तमाशा था सो पूरा करना था बस लो जी हो गयी शादी।
रेलगाड़ी चली रही मेरे विचार अचानक भंग हुये ' अम्बाला ' आ गया था और आवाजे लग रहीं थी
''वाहे गुरु प्रसाद गुरूजी 'वाहे गुरु प्रसाद गुरूजी'
अनेक युवक बाल्टियां लिए रोटी सब्जी अचार रेलगाड़ी मैं बाँट रहे थे।
मुझे आदत नहीं थी कहीं भी कच्ची रसोई जीमने की फिर भी दोनों हाथ फैला दिए प्रार्थना के साथ लिए
' वाहे गुरु सच्चे बादशाह ,तू मेरी राखी सबनि थाहिं तू मेरी रखियो सबनि ठाँह , जो मेरे ऊपर टेढ़ो होव उसपर टेढ़ो तू सरकार , अपना वचन निभाना वाहे गुरु '' सवा लाख से एक लड़ाऊं , चिड़ियों ते मैं बाज तुड़ाऊं ,तो मैं गोविन्द सिंह कहाउँ ''अब तो सवा सौ करोड़ से एक जितने का समय है मेरे दाता , तू राम का अवतार हो की कृष्ण का की कोई देवता बस ये सुन ले कि मेरा कोई नहीं है कहीं भी कोई नहीं है । न पिता न पति न भाई न पुत्र न सखा न शुभचिंतक कोई न ही कोई गुरु सेवक स्वामी शरणदाता। तीन मासूम बच्चे और एक अकेली थकी टूटी घायल देह जिसमें अब सहस तक नहीं बचा है परिश्रम तक की क्षमता भी नहीं रही।पता नहीं जीवन भी कितना शेष है।
रोटियां मैंने और मुन्ने ने खायीं बहुत स्वादिष्ट लगीं। बहुत बरसों बाद बिन कर्कश तने और गाली सुने दो ग्रास गले से नीचे उतरे थे।यात्रा ही जैसे मेरा भाग्य हो कहीं नहीं रुकना कहीं नहीं ठिकाना।
एक अभ्यास बन जाती है पीड़ा भी। आश्चर्य होने लगता है सुकून से। मेरी स्थिति वहीँ थी रेलगाड़ी में यह पहली यात्रा थी जब मुझे कोई भय नहीं था मेरे पास कोई अवांछित कार्य नहीं था।
हालांकि एक जोड़े ने थोड़ी हे देर पहले कड़वी बातें सुनायीं थी। जबकि हमारी सीट थी वे लोग दिन में भी बर्थ खोलकर लेटे रहना चाहते थे जबकि कुछ दैनिक आवाजाही वालों को कष्ट हो रहा था।
ये रेलगाड़ी भोर वेला में आनी थी परन्तु आयी देर शाम को। हम दोनों ने जैसे तैसे सामान निकाला और कैंट पर उतर गए। कैंट पर स्टॉपेज नहीं था फिर भी रेल रुकी तो हमने सोचा यही उतर लें भूमि को नमन किया सोचा निकट तो यही स्टेशन पड़ेगा।
बाहर आकर ऑटो लिया और मोलभाव से डेढ़ सौ रुपये तय करके चल पड़े किराये वाले कमरे का पता निकालते हुए।मुझवे अब कुछ भी तो याद नहीं रहता। विस्मृति का वरदान है या अभिशाप या तो रो -रो के मर जाते या भूल -भूल के उलझन में पड़ते रहते हैं।
तभी राजू का फोन आया।
'' माँ सा रुको ऑटो रोको , मेरी बात ध्यान से सुनो , मकान मालिक का देहांत हो गया है आज सुबह, वहां मत जाओ, हम कुछ सोचकर बताते हैं पांच मिनट रुको। ''
फ़ोन था कि बम फटा था , अब ? कहाँ जाएँ ? कहाँ रुकें ? सामान और बच्चा साथ है। मेरे सर और कान में ही नहीं पूरी देह में दर्द था ,बुखार और दर्द की गोली नित्य की भांति लेकर चलते रहे।
फिर राजू का फोन आया '' माँ सामान चिंगु के घर रखो सामान और वहीँ रुको हम आते है उसके घर। चिंगु यानि मनीष ,नेपाल का लड़का जो होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रहा था और एन सी सी की वजह से परिचित हो गया था। उसने पिछली बार भी मेरी बहुत सहायता की थी कमरा खोजने में; हालाँकि उसे सफलता नहीं मिली और कमरा मैंने ही कड़ी धूप में गली-गली भटक कर खोज पाया था ,फिर भी चिंगू के परिवार की छोटी सी मदद उस गाढ़े समय में बहुत अनमोल थी, तब जब पानी पीने तक के लिए किसी अनजान का द्वार खटखटाना पड़ता था बाहर आकर कोई देखता तो डर लगता कि मना न कर दे। फिर वे लोग एक शिक्षित सौम्य प्रौढ़ चेहरा देखते तो स्वयं ही लेकर पानी पिलाते बल्कि विश्राम को भी कहते। ये केवल पंजाब में ही संम्भव था , जिस क्षेत्र से मैं निकली थी वहां तो यही देखा था कि यदि पेड़ की छाँव में भी चुपचाप खड़े हो जाओ तो घूर -घूर कर देखने वालों की भीड़ लग जाती और पुरुष हो या छोकरे मोबाइल से तत्काल अजनबी महिला का फोटो वीडियो लेने लगते या सामान चुराने की जुगाड़ में मँडराने लगते।
मैं राहत और सुकून से उस कड़ी धूप में भी चल पाति रही थी तो इसीलिए कि वह पंजाब था ;पश्चिमी उत्तर प्रदेश नहीं। हर तरफ महिलाएं थीं और बुर्के घूँघट नहीं थे न ही घूरती गन्दी निगाहें थी।
मैंने ऑटो वाले को सब बात बताई और कहा कि मकान के सामने से होते हुए चलो। वहां जाकर देखा की टैंट लगा है सफेद , जिसका पंजाब में अर्थ होता है शोक सभा , भीड़ है और जोर -जोर से रोने विलापने की करूण आवाज़े आ रही हैं।
मैंने सोचा कि यदि मैं जाऊं तो मनहूस कहेंगे सब कि कदम पड़े और दुःख आया। मैंने सामान चिंगु के बरामदे में रखवाया , वह दूसरी मंजिल पर निकट के ही बंगले मेँ किराये पर माँ और बहिन के साथ रहता था।
क्रमश जारी
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भाग तीन
एक नगर अनजाने अपनों का सा
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राजू चिंगु के यहाँ ही था। पंजाब की की परंपरा है कि ऑटो वाल्वे स्त्री सवारी होने पर सामान स्वयं ही भीतर तक भेज कर आते हैं। दूसरी मन्जिओल तक ऑटो वाले ने हे सामान चढ़ाने में मदद की। अब काया करना था ? राजू ने कहा चलो यूनिवर्सिटी चलते हैं। राजू का हॉस्टल एंट्री का समय हो चुका था हम लोग तुरंत दूसरा ऑटो लेकर यूनिवर्सिटी आ गए। चिंता थी की अब कहाँ रुकेंगे पहनने के कपड़ों वाला सूटकेस साथ ले लिया था राजू ने। राजू के कमरे पर समान रखकर हम चारों यानि मैं , राजू, मुन्ना, और तेज कैंपस में आकर बगीचे की उसी पुरानी जगह जाकर बैठ गए जहाँ सदा से हम राजू के आने की प्रतीक्षा करते थे। बलदेवराज पार्क , ेहिं बी बैठ कर हर बार बहुत गहरे मन से बहुत पीड़ा लेकर ह्रदय में करूँ प्रार्थनाएं की थी। आज फिर वहीँ मूक विनय प्रार्थना जारी थी। जेब से जप माला पर जप जारी था। आस्था का एक लाभ तो अवश्य है की घोर निराशा में भी मानव को एक एक चमत्कार की आशा लगी रहती है की काया पता अब कदाचित अब कुछ चमत्कार हो जाये और सब कुछ ठीक हो जाये। हालाँकि अनेक बार मेरी प्रार्थना अनसुनी ही रह गयी परन्तु चमत्कार भी बार- बार होते रहे हैं। थोड़ी हे देर मैं एन सी सी वाले लड़के लड़कियों का समूह आया और पाँव छूकर हल चल पूछने लगा। यूनिवर्सिटी के चिकित्सालय के सामने वाले पार्क में जिसे राजू मुर्गा पार्क कहती है ,सारे छात्रों ने मिलकर छोटी सी जन्मदिन पार्टी का प्रबंध किया हुआ था। हमारे यात्रा जो १४ अप्रैल को परंम्भ होनी थी १५ को प्रारम्भ होकर १६ को पूरी हुयी और १६ अप्रैल राजू का जन्मदिवस होता है। मेरे पास कुछ नहीं था ,केवल आशीर्वादों के भावुक संदेश मन ही मन प्रार्थना और चिंता के। राजू भी उसी चिंता में थी। इसीलिए कुछ कम उल्लास से वह जन्मदिन मोबाइल फ़ोन की रोशनियों में मनाया गया। सब चले गए बधाइयाँ दे कर। रह गए हुईं चार , रुकने की व्यवस्था की खोज में। हॉस्टल के कमरे में रुकनइ की अनुमति नहीं थी। राजू तेज दोनों अपनी उपस्थिति लगवाने हॉस्टल चलीं गयीं और सुनसान लगती आवाजाही के बीच बगीचे में रह गए हम दो प्राणी ,मुन्ना और मैं। सामान राजू ले गयी। तीन घंटे बाद राजू का फ़ोन आया मान आ जाओ। हम हॉस्टल के भीतर चले गए डरे हुए , यह राजू के ही साद व्यवहार संस्कारों का लाभ था कि कभी झूठ न बोलने वाले छत्र की छवि थी सबको विश्वास था। हम भीतर गए कक्ष में भी था तो रूममेट का अंशिका बनारस से कुछ मीठा बोलने वाली किन्तु बहुत स्वार्थी आलसी और लालची लापरवाह पढ़ाकू से लड़की। राजू ने उसे भी समझा कर विश्वास में ले लिया और इस तरह मेरे दो दिन दो रात रुकने की व्यवस्था हुयी। इंडक्शन और कैटल हम पहले ही बच्चों के लिए आकस्मिक भोजन की व्यवस्था हेतु रख गए थे सो उसी पर फिर दो दिन भोजन पकाया चुपके से। सरा दिन इधर उधर घूमते रहते और देर रात आकर रुक जाते। उसी भटकन के समय यूनिवर्सिटी के संस्थापक के प्रतिमा और समाधि के सामने बेंच पर बैठे- बैठे प्रार्थना करते रहते '' हे पवित्र आत्मा कुछ तो विशिष्ट दिव्य होगा आपमें जो एक साधारण हलवायी की दुकान से इतनी विशाल भव्य यूनिवर्सिटी की स्थापना हो पायी , मुझे भी कहीं कोई छोटी बड़ी जैसी भी हो मेरे और मेरे तीनो बछ्कों के लिए पर्याप्त हो इतनी आय की जॉब दिला दो मैं आपको सदेव पिता तुल्य मानूंगी मेरे तो जाणदाता ने मेरा जीवन ही नष्ट कर दिया सब तरह से मुझे गंन्दगी से भरे बिना बिजली पानी मार्ग वाले मालिओं बस्ती के भी सबसे उजड़ा गंवार लड़ाकू जाहिल अनपढ़ परिवार ंवें जन्भूमि से पांच सौ मील दूर दुर्गम दुरूह भयंकर स्त्री विरोधी अपराधी समाज में बिना मेरी प्रकृति शिक्षा मानसिक शरीरिक क्षमता और लक्ष्य सपनों को समझे पटक दिया और भुला दिया की कोई बेटी विवाह के बाद भी मरने तक निभाई जाती है। उसी की कमी से ये सब तने अपमान हिंसा और देश निकाला हुआ। आप मुझे शरण आयी दत्तक पुत्री ही मन लो इन बच्चो, के नाना बनकर जहाँ हजारों कर्मचारी है एक को और जगह दे दो। प्रार्थना में गहरी विराट शक्ति है। यही प्रार्थना में पिछली बार जब राजू को समान देने आयी थी तब स्वर्ण मंदिर में करके गयी थी। चार घंटे क़तर में लगे लगे पसीने से तर -बतर लाखो की भीड़ में भी मेरा मन लगतार प्रार्थना करता रहा था। वहीँ निशान साहिब यानि वह विशाल लोहे की साँग जो की बुंंदेलखंड के देवी मंदिरों में हमने जगदंम्बा की पूजा के समय माता के दिव्यास्त्र के रूप में पूजी जाती देखि थी ,इधर '' स्वर्ण मंदिर ''
''हरमन्दिर साहिब ' में ' निशान साहिब कहके कपडे से ढंकी हुयी देखी। मैंने अपने दुपट्टे से चीयर फाड़ा और राखी बांध दी उस दिव्यास्त्र को। आज से वही गुरूजी आप मेरे बच्च्चों के मामा हुए और पंजाब मेरा मायका। अब में ये दोनों बेटियां आपकी रखवाली में दे रही हूँ मेरे विश्वास आस्था प्रार्थना का मन रखना। पिछली यात्रा में दूर दूर तक कोई विचार या संम्भावना तक नहीं थी की मुझे यूँ अचानक घर बस्ती त्यागकर आना है। न नौकरी न रोजगार रहने का ठिकाना और न जान पहचान न कोई पूँजी तो काया सोचते।
दो दिन बाद हम लोग केंट के समीप वाले गाँव खुसरोपुर में बसी नयी कॉलोनी के सबसे भव्य भवन के किराये के कमरें में पहुंचे। हालेंड से लौटे एन आर आई यानि अप्रवासी भारतीय की कोठी थी जिसमे पहले एक वृद्ध दंम्पति रहते थे। ईसाई परिवार मुझे देवदूत के तरह ही लगा उस समय तो। क्योंकि भारी किराया सुन -सुन कर एक के बाद एक गली सड़क माकन देखते -देखते हम थक कर निराश हो चुके थे। मकान मालकिन बहुत स्थूल देह वाली प्रौढ़ महिला थी। जिसने हमे पानी पिलाया और भोजन चाय को भी पूछा। यद्यपि व्याकुल मन के कारण हमारी भूख प्यास समाप्त थी। समान लेकर हम रात में आये थे चूँकि राजू तेज की कक्षाएं सायंकाल ६ बजे तक रहतीं थीं। राजू मुन्ना हम एन सी सी का छात्र गोपाल जो दोनों बेटियों को बहिन मानता था और जिसे हमने माकन मालकिन को बड़ा बेटा बताया हिमाचल का आर्मी परिवार का सरल किन्तु बहुत सेवाभावी लड़का था। रात का भोजन हम पूरी सब्जी बनाकर क्ले आये थे। गोपाल को के लिए बहुत मन्ना पड़ा। ये बहुत अच्छा था की कमरे में सीलिंग फैन दो चारपाई निवार वाली दो कुर्सी और बरतन की रैक थी। एक घंटे में मैंने सामान लगा लिया। और खाना खा कर हम सब लेट भी गए बहुत थके थे। उस रात को आधी नींद आयी भो पहले हो उठकर राजू तेज का खाना पकाया पैक कर दिया। गोपाल हॉस्टल चले गए तेज आ नहीं सकती थी क्यों उसकी कक्षा देर शाम ८ बजे तक होती थी एन सी सी के कारण और हम। अब एडमिशन चिंता नहीं थी। क्योंकि जैसे कि हम पहले ही पिछली यात्रा में दिसंबर में ही कान्वेंट स्कूल की परीक्षा दिलवाकर ले गए थे और मुन्ने ने आश्चर्यजनक तरीके से आकस्मिक होने पर भी सर्वोत्तम अंकों से पास भी कर ली थी। फिर मार्च में जब आये तो हमारे सामने संकट था दूरी और व्यय का। फिर तभी आर्मी पब्लिक स्कूल से स्ताहन न होने के लेकर निराश होकर , इंटेररनेट पर खोज की और तीन चार स्कूल चुने थे मुन्ने ने वह परीक्षा भी उत्तम अंको से आकस्मिक होने पर भी पास कर ली थी और सब चकित थे क्योंकि अधिकांश बच्चों के हस्तलेख और समय ज्ञान सीमा सब ओसत ही थे । मुन्ना राजू के ही भाँति विशेष है लेख तो बहुत सुन्दर है ही स्वयं ही पढ़ने की आदत भी है जिससे मुझे बहुत सहायता मिलती है। पंजाब आर्म्ड पोलिस स्कूल में मुन्ने को आसानी से प्रवेश मिल गया पूरा दिन मेरा वहां लग गया बिना खाये पिए बैठे और व्याकुलता से टहलते हुए जबकि शेष सब खा पी रहे थे। मेरी भांति मुन्ना भी व्याकुल था। बहुत अनुनय करके उसे कुछ खिलाया था। सांध्य होते होते मुझे प्रवेश का सब कार्य पूरा करके दे दिए प्रपत्र -पत्र। अब मुझे मुन्ने के जन्म प्रमाण पत्र स्थानांतरण और अन्य समाना लेन थे। दूसरी यात्रा में मैंने बहुत भागदौड़ करके सब जुटाया। बिना कोई अशोर चर्चा केमुन्ना हर दिन मेरे साथ हर ऑफिस जाता और चुपचाप मेरे कागज पर्स मुझे भी सहस देता रहता ९ वर्ष की बालिका जैसे माँ और मैं युवा बेटी होऊं।
इस बार जब किराये के कमरे पर थे तो अगले इन सबसे पहला कार्य यही किया कि मुन्ने के स्कूल गए और प्रवेश शुल्क जमा किया लगभग तीस हजार रूपये तो इसी में खर्च हो चुके थे। भी तय हो गयी। राजू रोज सुबह कमरे से निकलती और रात होने से पहले कमरे पर पहुँच जाती। दुबली पतली सी लड़की जैसे रत दिन हाड़ तोड़ परिश्रम करती आ रही थी। उसकी मुखाकृति देखि तो कलेजा मुंह को आने लगता। दस किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चल रही थी वह। तब जब की उसके घुटने में भीषण पीड़ा थी।
कोठी बहुत सुन्दर थी। हरा भरा लॉन मुख्या सड़क के निकट। बड़ा सा भयानक कुत्ता रखवाली को था जो पहले ही दिन पहचानने लगा था। दूसरी मंजिल पर हमरा कमरा बहुत बड़ा था आगे बरामदा पीछे खुला केबिन था ऊपर भी एक बड़ी छत थी और कमरे के चारों तरफ भी बाहर सारा खुला स्थान था। कुछ समय के लिए लगा हम सुखी हो ही गए अंततः , दूर दूर तक हरे भरे खेत , निकट ही बड़ा सा स्टेडिऍम , पास हे तजा गाढ़ा दूध भी एक विशाल कोठी वाले सरदार जी के यहाँ से मिलता बहुत सस्ते दामों पर जिसमे भरपूर मालयी और घी निकालता। सब्जी भी निकट हे मिल जाती। किराने की दुकान वाला सामान अपने स्कूटर से कमरे तक पंहुचा जाता। कुछ दिन बाद पता चला की ये लोग वाल्मीकि मेहतर थे जो बाद में ईसाई बन गए। तब जब माकन मालिक के तेरहवीं हुयी तो सब सफाई कर्मचारी रिश्तेदार जुटे जिन्होंने धर्म नहीं बदला था। मन ही मन सोचा लो ये सीता वनवास भी सत्य हुआ। यूँ ही यदा -कदा सोचते रहते थे कि काश कोई हमे भी वाल्मीकि धर्म शरणदाता की तरह मिल गया होता तो हम भी ये यातनागृह त्याग देते और देखो संयोग कि मिला घर तो वाल्मीकि का। मि. जिंजर थापर ने बहुत सारी स्थाई संपत्ति खस्दी कर डाली थी हालेंड से आने के बाद। उनका एक बेटा बहु जो नीदरलेंड में रहते थे आये हुए थे। मिलनसार और विनम्र लोग थे। मेरे लिए एक और सुविधा वाली बात थी मुन्ने की बस बिलकुल निकट आती थी। और वह बिना किसी को लिए भी आ सकता था। हालाँकि हम या राजू या तेज उसे लेने छोड़ने रोज जाते रहे थे. मात्र सोउ कदम की दूरी पर ही बस रुकती ,वहां भी एक मिठाई की दुकान का शेड था जिसमे ३ और बच्चे भी आर्म्ड पुलिस फाॅर्स के हे स्कूल में पढ़ते थे। पंजाब में या तो लोग फौज में जाने के दीवाने हैं या फिर फ़्रांस कनाडा इंग्लॅण्ड अमेरिका। बहुत सम्पन्नता का कारण भी है आयु कुछ भी हो स्त्री हो या पुरुष कमाई के बारे में पहले तय्यारी करते हैं। कोई नहीं सोचता काम क्या है केवल ये ध्यान रखते है प्यासा कितना मिलेगा। इसीलिए पंजाब का खान पान रहन सहन दूसरे राज्यों की तुलना में विलासितापूर्ण और भव्य है। आधुनिक से आधुनिक मशीने लगाना और बड़ी से बड़ी अलग तरह की दिखनें वाली कोठी बनवाना ,पंजाब की पहचान बन चुका है। जीवन कुछ कुछ पटरी पर आने लगा था। अब तलाश थी आजीविका की। हमने कुछ अखबारों के दफ्तर और कुछ टूशन की जुगाड़ कर ली थी अगला कदम था कोर्ट जाकर सदस्यता लेना और प्रेस कलब जाकर किसी भी तरह से पत्रकार का परिचय पत्र बनवाना। अनजान नगर में ये दो परिचय मेरे लिये अस्सरा बन सकते थे , यदयपि मैंने मन बना लिया था कि मुझे किसी दुकान में सेल्स गर्ल से लेकर किसी कोठी में कुक हैलपेर का भी काम करना पड़ा तो करेंगे परन्तु अब पीछे नहीं लौटेंगे। राजू की यूनिवर्सिटी का उपाधि वितरण समारोह था। राजू को अनेक पुराकसकारों के लिए बार बार स्टेज पर बुलाया जाना था। मुझे भी अभिभावक के टूर पर बुलाया गया था। वह एक मई का दिन था। मंच का अवसर देख कर मन में हुक सी उठती है आज भी मुझसे स्टेज जाने कबसे रूठी हुयी है। जबकि कभी हर दिन तालियों के बीच कभी भाषण कभी गायन कभी मंच संचालन तो कभी काव्य पाठ चलता हे रहता था। बचे हुए समय में चुनावी सभाएं थी। अनेक कार्यक्लरमों के निर्णायक तो कभी मुख्य अतिथि होते थे। आज गुमनाम और एकदम निराश्रित हम चार लोग विशाल हल में थे। मंच से बार बार किसी अभिभावक से दीपक प्रज्ज्वलित करने का निवेदन किया जा रहा था सब संकोच में थे ,तभी हम उठे और साढ़े कदमों से मंच पर जाकर दीपक जला दिया , तीन बतिया हम जला चुके थे। चौथी जलने लगे की तभी प्रो चांसलर आकर बोली दूसरों को भी जलाने दीजिये , तब तक मेरी देखा देखी कुछ और लोग भी आ चुके थे।कुछ देर बाद जब दोबारा राजू का नाम पुकारा गया तो मुझे भी पुकारा गया। हम राजू के साथ मंच पर चढ़े तो फिर वही स्टेज के आह सी याद आयी , कब तक यूँ ही गुमनाम रहना होगा ईश्वर ? स्टेज पर डायरेक्टर जनरल मैनेजर ऑफ़ यूनिवर्सिटी जो बहुत बुजुर्ग थे ने पूछ लिया तो परिचय दिया राजू ने। राजू के अनेक कार्यक्रमों से वे पहले भी परिचित होंगे। बहुत प्रसन्न मन से कह दिया आना कभी माँ को लेकर मिलने। कार्यक्रम के बाद भोजन भी था परन्तु मेरा मन ही जब उदास था तो भीड़ देखकर सदा की भांति अलग जाकर खड़े हो गए राजू अपने प्रमाण पत्र लेने गयी थी वे बुजुर्ग भी वहीँ बाहर खड़े थे उत्सुकतावश कुछ देख रहे थे बात करना चाहते थे परन्तु हम बहुत शून्य भाव से खड़े थे। वे एक अन्य समूह से बतियाने लगे।
एक दिन बाद राजू ने आकर कहा माँ चलो मिल आते हैं इतने बड़े बुजुर्ग व्यक्ति की बात का सम्मान रखना चाहिए।हम लोग जाकर मिले बहुत देर तक बात की उन्होंने। राजू ,तेज दोनों से बहुत प्रभावित थे। तबवही पूछ लिया जॉब क्यों नहीं कर लेती यूनिवर्सिटी में ? हमने कहा कि देख तो रहे है। उन्होंने अचानक पूछा सी वी है ? हम कुछ कहते इससे पहले ही राजू ने मेरा सी वी निकल कर डायरेक्टर जनरल मैनेजर सर की टेबल पर रख दिया। पढ़ते पढ़ते उनकी आँखे चमकने लगीं। और बोले अरे वह आप तो बहुत अधिक पढ़े लिखे हो !! वकालत की है !! पत्रकार रहे हो !! समाज सेवा ,साहित्य अरे वाह वेरी गुड।
समय की भौहों पर एक मुस्कान खिली जैसे और जॉब का इंटरव्यू हुआ पूरा दिन तरह तरह से परीक्षा ली जाती रही , परन्तु जो किसी भी तरह की परीक्षा से कभी द्र ही नहीं हो वो अब इन साधारण से सवालों का क्या करता। पूरा दिन मैं जप करती रही मौन। क्योंकि मुझे इस समय जॉब की बहुत बहुत आवश्यकता थी। कुछ लोग जिनमे एक विकलांग व्यक्ति राकेश कुमार भी था कुछ नकारात्मक तरीके से कमियां निकल रहे थे। कंप्यूटर पैर भी परीक्षा ली गयी। जाप बहुत अच्छी नहीं थी क्योंकि मेरी टाइपिंग स्पीड बहले बहुत फ़ास्ट थी परन्तु बहुत दिनों से की पैड छुआ ही नहीं था तो क्या करते। शेष सब बातें सकारात्मक थी। मुझे नहीं मालूम था की मैं किस पोस्ट के लायक हूँ, किन्तु राजू के कहने पर मैंने पचास हजार पार्टी माह की स्लरी की मांग रखी थी जिस पर सौदे बाजी हो रही थी। सबसे अच्छा लगा प्रो चांसलर मैडम रश्मि मित्तल से मिलना। मुन्ना किराये के कमरे पर था और कुश हॉस्टल मैं ,राजू मेरे साथ था , मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी जैसे जैसे शाम हो रही थी। आखिरी इंटरव्यू के बाद मुझे कुछ पेपर साइन कराये गए थे। मैं बाहर आ गयी ये सोच कर की ये बस आखिरी है। रात होने को थी मैंने सुबह से एक कप चाय तक नहीं ली थी। बहुत से लोग तो इस देरी से निराश होकर जा चुके थे।तभी फोन आया एक लड़की का ' मैडम आप हो कहाँ अभी जाना नहीं है , मैंने जगह पूछी तो वो बोली आप अपनी लोकेशन बातो मैं आती हूँ , वह आयी और मुझे लेकर एक विशाल हॉल मैं पहुंची चांसलर हॉल। मैं चुप थी क्योंकि मेरे पास कोई और वजह ही नहीं थी किसी से बात करने बोलने की। एक लड़की बहुत मेक अप में बार बार कुछ न कुछ बोलेन की कोशिश कर रही थी, परन्तु मुझे उसका बोलना तनिक भी नहीं सुहा रहा था। प्रो चांसलर मैडम से मैंने साफ साफ कह दिया पूरी कहानी का सार की मुझे जॉब की बहुत जरूरत है आप कहें तो मैं यूनिवर्सिटी मैं झाड़ू भी लगाने का काम कर सकती हूँ , सेलरी की कोई सीमा मैं तय नहीं करूंगी बस आप ही सोच लो की तीन बेटियों सहित मेरा व्यय भार मैं उठा लूँ। उनका बोलचाल बात करने का तरीका इतना अपनत्व भरा था की में आश्वस्त हो गयी तभी की मुझे जॉब मिल ही गयी है। एक से दूसर फिर तीसरे फिर चौथे कमरे मैं घूमते हम कुछ बचे खुचे लोगों को एक बड़े से सेमिनार रूम मैं बिठा दिया गया। मुन्ने के पास कौशिकी पहुँच गयी थी राजू ने बताया। राजू मेरे साथ थी। ससे बाद में मेरा नंबर आया। एक कमरे में बुलाया गया अपॉइंटमेंट लेटर दिया और बधाई देकर वही विकलांग व्यक्ति सकारात्मक स्वर में बोला , बधाई हो आपकी चालीस हजार पैर मंथ सेलरी पर जॉब मिल गयी है , ये मेरा नंबर है कोई बात जरूरत हो तो आप मुझे कॉल कर सकते हो। शब्द सुनने पर मुझे उछल पड़ना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ मैं शांत थी धीमी सी आवाज में कहा थैंक यू। उन लोगों मई से एक ने पूछा ' कब से ज्वाइन कर सकती हैं आप मैंने कहा जब से आप कहें। वे लोग दो मिनट बात कटे रहे फिर बोले ७ मई से ? मैंने कहा ठीक है। फिर मेरे ओरिजिनल दस्तावेज मांगे और खा ये सिक्योरिटी बतौर मेरे पास रहेंगे। मैंने खा ठीक है किन्तु प्राप्ति दीजिये। वे लोग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। मैंने फिर कहा कि अभी जो जॉब मिली भी नहीं उसके लिए मैं पूरी जिंदगी की कामयी बिना किसी सुबूत के कैसे दे दूँ ? तब वे लोग केवल ऍम ए और हायर सेकेंडरी किमार्कशीट रखकर बोले ठीक ? तब भी मेरा सावला सुनकर समझाया की ये सैलरी से सिक्योरिटी पूरी काटने के बाद आपको लौटा दिए जायेंगे हमारे पास साफे रहेंग आप फोटो ले लियो फोटो स्टेट करा लो। मैंने राजू की ररफ देखा राजू की राजी देख कर दे दिए और। वापस चल दिए। राजू बहुत कूदने की स्थिति में था और मैं नयी चिंता के साथ की अब क्या -क्यों की जिम्मेदारी है।
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आधी रात की पूरी भोर
सुधा राजे 'दतिआ 'मध्य प्रदेश '
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इस कहानी में कुछ भी रोचक है तो बस ये है की ये शब्दशः सत्य है। हो सकता है की आगे लिखते लिखते मैं भावुक या अति यथार्थ में आकर कुछ अश्लील लिख दूँ या ये किस्सागोई की सीमा से बहार आकर लंबा कथानक बन जाये ; परन्तु जीवन में भी तो सब कुछ शालीन , और ग्राह्य भी तो हर बार नहीं होता न ?
न ही सब कुछ सही और सामान्य होता है हर बार !! बस या भी एक असामान्य जीवन की सीधी कहानी है।
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भाग एक
दो गाड़ियां एक यात्रा
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रात गहराती जा रही थी ,और मेरी व्याकुलता भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी। हर तरफ अंधकार था न केवल स्टेशन के आसपास ,बल्कि मन में ,जीवन में भी ,जल रही तो प्लेटफॉर्म पर पीली सी रौशनी और ह्रदय में जिद कि ,जो भी होगा अब से तो अच्छा ही होगा। मुझे बार बार मार्क्स का वाक्य याद आ रहा था 'तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है' तो जो भी होगा पाना ही होगा अब तो। राजू ने दो अलग अलग रेलगाड़ियों के दो अलग अलग समय के टिकिट बुक किये थे जो कन्फर्म नहीं थे परसों तक। कल ही राजू ने फ़ोन करके बताया कि टिकिट कन्फर्म हो चुके हैं दोनों ही। मुझे हर हाल में निकलना ही था। सदा सदा के लिए परन्तु ये बात सिर्फ मुझे और राजू को पता थी। नहीं मालूम था की कहाँ से आगे का व्यय चलेगा , कैसे नयी अनजानी जगह पर अपना जीवन फिर से नए सिरे से प्रारम्भ करेंगे , परन्तु बस ये ही संकल्प था कि ,अब से तो हर हाल में जो भी होगा बेहतर ही होगा। भय और पीड़ा सब चरम तक पहुँच कर समाप्त हो चुके थे। थी तो बस व्याकुलता कि कोई रुकावट न आ जाये। भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धामपुर का रेलवे स्टेशन जिस क्षेत्र में बरसों में कभी कभार ही विद्युत् प्रकाश से उजाला हुआ होगा अन्यथा इस पूरे ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बिजली आना त्यौहार की भांति हर्ष का शोर करने वाला यदा कदा दुर्लभ अवसर रहता आया है। भयंकर मच्छर ,आवारा कुत्ते , जेब कतरे , स्त्रियों के साथ बुरा व्यव्हार करने वाले लफंगे, आवारा लड़के और साधु या मौलवी के वेश में घूमते अपराधी आतंकी महानगरों के फरार मुजरिमों से भरा रहने वाला ये स्टेशन जहाँ दिन में भी स्त्रियाँ आते जाते डरतीं हैं और बिना किसी पुरुष को साथ लिए उस जगह दो पल बैठना संकट ही नहीं छेड़छाड़ पूछ ताछ का अधिकार लोगों के लिए बन जाता है ; मुझे विवश होकर किसी को तो गाड़ी आने तक साथ रखना ही था , सो मैंने उसे ही लिया जिससे ,दूर बहुत दूर जाने का संकल्प ले लिया था। वह लगतार धमकियाँ गलियां चेतावनियां दे रहा था और मैं सुन रही थी ये सोच कर बस कुछ देर और फिर इस भयानक बस्ती से वयक्ति से सदा सदा को मुक्ति ।
रेलगाड़ी दो और दोनों ही विलम्बित ,तो सोचा की चलो वातानुकूलित वाली है उसमें ही बैठेंगे ,जैसे एक सदी बाद हर छोटी से छोटी चीज जी लेना चाहते थे हम । रात के एक बजे हम दोनों डिब्बे में चढ़े तो पूरे अधिकार से अपने क्रमांक वाली सीट पर बैठ गए। एक स्टेशन आगे आते ही टी टी ने संदेह से पूछा
'आपकी ही सीट है ?''
'हां क्यों ' मैंने पूरे आत्म विश्वास से उत्तर दिया।
''क्योंकि इस स्टेशन से तो हमारी कोई सवारी है ही नहीं !
मैंने पूरे अधिकार से टिकिट दिखाए ,
''मेम ये तो कल की निकल चुकी गाड़ी के हैं ! आपको टिकिट लेनी पड़ेगी या उतरना पड़ेगा।
ओह्ह ! अब? व्याकुल होने ही नहीं भयभीत होने की बारी मेरी थी। हे ईश अब नहीं।
वास्तव में हुआ ये कि न राजू का ध्यान गया न मेरा कि मुझे उस बस्ती से तो रात के आठ बजे से पहले ही निकलना था क्योंकि, फिर कोई वाहन वहां नहीं मिलता टेम्पो अड्डा भी अंधकार और शराबियों भिखारियों का अड्डा बन जाता है ,परन्तु मेरी गाड़ी तो रात के बारह बजकर दस मिनट पर आने वाली थी जो दूसरी तिथि दिनांक हो जाता। यही हुआ भी।
मैंने दूसरे टिकिट दिखाए कि देखिये मुझे हर हाल में ये यात्रा करनी थी तो मैंने दो दो गाड़ियों के टिकिट लिए तब टी टी को विश्वास हुआ और बोला कि आप लोग अगले स्टेशन पर उतर जाओ और आपकी दूसरी गाड़ी एक घंटे लेट होने के कारण मिल जाएगी अन्यथा ये और कहीं नहीं रुकेगी आपको प्राम्भ से अंत तक का टिकिट लेना पड़ेगा।
मुझे पता था कि वह मुझ पर दबाव बना रहा था ताकि कुछ रुपया ऐंठ सके ,परन्तु मेरे पास दूसरी गाड़ी का विकल्प था तो मैंने मुन्ने के साथ उतरने का निर्णय लिया।
अगला स्टेशन पहले वाले से भी बहुत जंगल गाँव अंधकार में था। हर तरफ आवारा कुत्ते गन्दगी ऊपर से दाढ़ी वाले पुरुष जो बहुत घूर -घूर कर देखने के के अलावा पूछताछ के चक्कर में भी थे। ऐसी ही तो जिंदगी जियी इतने बरसों से। हर तरफ वही लोग जिनके लिए एक पेंट शर्ट , कटे बालों वाली स्त्री कौतूहल का कारण ही नहीं अपितु हेयता का भी विषय होती है। जिस क्षेत्र में दिन में तक कोई स्त्री अकेली नहीं निकलती वहाँ रात के तीन बजे सुनसान अँधेरे से स्टेशन पर अत्याधुनिक वेश भूषा में अकेली स्त्री वह भी एक छोटी सइ बच्चे के साथ !
लोग बार बार मेरे आस पास चकराने लगे थे। मैंने सुरक्षा के लिए स्टेशन मास्टर कक्ष के पास पुलिस केबिन के निकट पड़ी बेंच पर अपना सामान रखा और पूरे आत्मविशवास से एक उच्च अधिकारी से इंग्लिश में वर्तालाप प्राम्भ करना प्रारम्भ किया। भारत में जो काम गोली नहीं कर पाती वह अंग्रेजी बोली करती है ,यह मेरा बार बार का अनुभव रहा है । सब दूर चले गए और वही अधिकारी एक कुली को आवाज़ देकर समझने लगा की मैडम को गाड़ी में ठीक से बिठा देना इनका डिब्बा इस जगह आकर रुकेगा। नजीबाबाद जैसे हम लोग किसी भयानक जगह थे हर तरफ से लोग चोरी ,छेड़छाड़, सवाल,और उत्सुकता से तकते कौन हो यहाँ क्यों हो जैसे हम कहीं किसी और ही ग्रह से आये अजीब प्राणी हों।ये वह जगह है जहां से लगातार महिलाओं के अपहरण हत्या , चोरी राहजनी ,जेबकतरी ,देहव्यापार के लिए स्त्री बच्चे बेचने खरीदने ही नहीं बल्कि आतंकी छिपे होने तक के पक्के समाचार मिलते रहे हैं। जल में रहकर मगरमच्छ से बैर भी तो नहीं कर सकते इसीलिए कभी अपना पता तक किसी कविता में तक देकर नहीं छपने भेजा। मेरा पच्चीस वर्ष का अज्ञात वास ऐसे ही क्षेत्र में बीत गया।
भोर के चार बजे पुनः घोषणा हुयी कि हमारी गाड़ी और बिलम्बित हो गयी है। कुली का पता नहीं था तो मैंने और मुन्ना ने ही सारा भार घसीटते हुए ले जाकर संम्भावित जगह रखा जहाँ की हमारा डिब्बा रुकना था। गाड़ी अंततः प्रातः के आठ बजे आयी। पूरे दस घंटे देरी से। जैसे सबने मिलकर एक षड्यंत्र कर रखा था मेरे विरुद्ध की में कहीं जा न सकूँ। परन्तु अब नहीं तो नहीं मैंने दूसरी तिथि में यात्रा प्राम्भ की। वह सोमवार का दिन था और ये मंगलवार। कुली तब आया जब हम पूरी तरह गाड़ी में चढ़ चुके थे और एक अंतिम भारी समान चढ़ा रहे थे उसने सोच कि अब पैसा नहीं मिलेगा तो ताना मारने लगा कि मैंने तो आपके चक्कर में दूसरी सवारी छोड़ी आप ने क्यों उठाया , मैंने चुपचाप रूपये निकाले और उसके हाथ पर रख कर कहा भाई ले लो , नहीं दिखे तो मुझे गाड़ी निकलने का भय था इसिलए बहुत घसीट कर लाये सामान परन्तु तय किया था तो लो। वह सलाम करके चकित सा देखता चला गया , जैसे कि उसने पक्का मन कर लिया था कि रूपये तो मिलेंगे ही नहीं। हालाँकि मैं शनिवार को निकलना चाहती थी , सदा सदा के लिए पक्का निकालना हो जिससे ।
गाड़ी में सीट मिलने के बाद एक गहरी शांति थी तो दूसरी चिंता भी कि अब क्या होगा। मेरेपास न तो कोई आय स्रोत था अब न ही कोई परिचित क्षेत्र , न ही कोई बहुत बड़ी बचत राशि , कि कुछ दिन तो नयी आजीविका की खोज केलिए समय मिल जाये। बस एक कमरा अवश्य खोज कर पिछली यात्रा में तय कर लिया था कि आकर रुकना है और उसका एक माह का किराया भी अग्रिम देकर चाभियाँ राजू को देकर चले आये थे। गैस और स्टील चूल्हे का नया कनेक्शन भी ले ही लिया था। इसीलिए एक माह तक की निश्चिंतता तो थी ही। राशन के लिए थोड़ी सी बचत राशि भी राजू के पास ही भेज दी थी क्योंकि भय था पता नहीं निकले निकलते कहीं छीनी न जाये जैसा की अनेक बार होता रहा था।
(क्रमशः ) जारी।
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भाग दो
अनंत यात्रा पर लापता सफर
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रेलगाड़ी जैसे जैसे आगे की और भागने लगी मेरा मन दोहरी व्यकुलता से छटपटाने लगा। आह पूरी आयु व्यर्थ गयी ,न तो मैं स्त्री धर्म पालन कर सकी न ही अपने एकमात्र लक्ष्य साहित्यकार बनने को पूरा कर सकी। अहह कैसा निरर्थक जीवन सर्वगुण संम्पन्न सुंदर स्वस्थ आकर्षक शालीन और हर तरह से योग्य स्त्री होकर भी मैं न एक पत्नी,न एक बहिन ,न एक अच्छी माँ ,न एक प्रेमिका, न एक सखी ,यहाँ तककि एक सामान्य जीव की भी तरह नहीं जी सकी !!
ओह्ह ईश्वर तूने मुझे बनाया ही क्यों?
कहाँ तो मैं सुकन्या को आदर्श मानकर च्यवन की सेवा पूजा और सब भांति स्वयं की सब अस्मिता भुलाकर घोर देहात में घोर प्राचीन जंगली ग्रामीण गृहणी जीवन तक के लिए स्वयं को ढालती जा रही थी। अपितु पूरी देहातिन गँवार ग्रामीण बन ही चुकी थी। भोर तीन बजे ही नींद त्याग कर हत्था हैंड पंप से पानी भरना , फिर गाय भैंस बैल बछड़ों के देखभाल करना, पूरे ग्यारह सौ वर्ग मीटर बड़े घेर गेंवड़े की झाड़ू लगाना , स्वयं ही लकड़ियां काटकर वह भी मात्र दराँती से , बड़े -बड़े पेड़ बांस की सीढ़ी पर चढ़कर काटना ,फिर लकड़ियां अधपर गलियारे में टांगना ताकि सूख सकें ,फिर स्वयं ही मिटटी खोदकर सानकर चूल्हे अंगीठी बनाना ,पोतना -लीपना मिटटी लगाना और धुएं में भोर ही भोर में दाल चावल रोटी सब्जी चटनी सलाद चाय ,बच्चों के टिफिन , खेत वालों को भोजन देना ,फिर थपकी से गंदे मैले चिकटे कपडे धोना ,काले बर्तन मांजना , पोंछा ,और फिर ट्यूशन ,सिलाई ,बुनाई, कढ़ाई, करना ,अपना और बच्चों का सारा व्यय निकलना ,फिर भी रोज उस व्यक्ति के पाँव दाबना मालिश करना और हर तरह से देख-रेख करना जो ,कभी ये तक नहीं पूछता कि तुमने भी कुछ खाया ?
२५ वर्ष किसी ने यदि कभी परवाह की तो राजू ने .या टैंक होश आया तो तेज ने ,जबसे उसने बोलना सीखा जब जब घर पर होती तो जिद करती ''माँ आप भी खाओ '' .
एक वही अब भी मेरे लिए समुद्र के जहाज को दीपस्तम्भ की भांति साहस बनाये रखने का कारण बनी हुयी थी। हाँ मुझे जीवित रहना है उन भोले निर्दोष प्राणियों के लिए।
मैंने मन न होते हुए भी मुन्ने के साथ कुछ भोजन लिया जो मैंने चुपचाप बनाकर रख लिया था सदा की भांति जब भी कोई मेरे साथ होता यात्रा में मुझे याद्र रहता कि भोजन बनाकर अवश्य रखना है।
मुन्ना आनंद ले रहा था यात्रा का। उसको तो अपने ' बाउ ' के साथ दद्दू के साथ रहने का अवसर मिल रहा था वह इसी से बहुत उत्फुल्ल था। बाउ यानि बड़ी दीदी 'राजू और दद्दू यानि मंझली दीदी 'तेज'।
बस इतनी ही मुन्ने की दुनिया थी। परन्तु मेरे सामने प्रश्नो का जंगल था और था आजीविका का संघर्ष। एक माह तो जैसे -तैसे निकल जायेगा आगे क्या होगा ?
मुझे पहले ही दिन से कोई न कोई तलाश करनी थी। न्यायालय वर्षो से नहीं देखा था , पत्र पत्रिकाओं की रद्द्दी तक दुर्लभ हो चुकी थी उस बस्ती में , कोई पढ़ा लिखा आदमी तक नहीं देखा था जैसे एक सदी से। मैं वकील थी ,मैं पत्रकार थी मैं कवि लेखक , अध्यापक थी परन्तु केवल पत्रों प्रपत्रों पर।
वास्तिविकता में मैं केवल बंदिनी थी। घोर श्रमिक भी दोपहर विश्राम ले लेता है। बंधुआ मजदूरनी भी मेला सिनेमा तमाशा नौटंकी फ़ाग मंदिर नदी सरोवर सखी सहेली विवाह बारात भोज दावत में चलीं जातीं हैं किन्तु , मैं एक अनोखी ही कहानी कि मुझे पूजा तक वह भी घर के भीतर , करने की भी मुहलत नहीं थी। बरसों हो गए थे मैंने नाश्ता नहीं किया , कभी रात को भोजन नहीं किया , केवल जैसे -तैसे सब काम काज निपटा कर जब बच्चे विद्यालय से आते उनको खिलाकर तीन से पांच के बीच ही हड़बड़ी में बची खुची रोटी भात चटनी या बासी सब्जी दाल के साथ कहती रही बिना किसी उपालम्भ के।हर समय दर ही लगा रहता कि अब कोई आया और कुछ झगड़ा हुआ। ऊपर से ट्यूशन की अनेक पालियाँ थीं फिर मेरा ऐसा शुभचिंतक अब था ही कौन जो देखता कि मैं क्या और कब खाती हूँ। इतने पर भी तो लगातार ताने ऊपर से घटिया गन्दी गलियां मिलते रहते थे
''हरामज़ादी रंडी कुतिया छिनाल बदमाश खुद तो सुबह से ठूंसकर बैठ गयी होगी और हमको अब दे रही यही है !!
ये नित्य के कहानी थी। पहले पहल बहुत रोये , सिसके ,क्रोध भी आया , फिर विवशता के पर्वतों ने मुंह में कर्कशता और हाथों में बेदर्द तेजी भर दी। मैं पीठ दर्द से कराहने तक पसली में तेज टीस उठने तक कमर में भयंकर टूटन होने तक , बुखार में तपता शरीर और छिले कटे कत्थई पड़े मारपीट के अत्याचारों के चिह्न दुखते अंगों के साथ स्वयं पर ही बहुत निर्दयी होकर सारे काम करती जाती थी। जैसे मुझे स्वयं से कोई वास्ता ही नहीं था। हथेलियों में सचमुछ की ठेठें पड़ चुकीं थी। रंग सलोने से गेहुंआ होते होते काला हो चुका था। चेहरे पर बहुत अमिट गहरीं झाइयां हो गयीं थीं और मुझे अब कभी अपना चेहरा देखना दर्पण में तनिक भी भला नहीं लगता था। मैंने दर्पण देखना ही त्याग दिया पुराणी तस्वीरों को याद रखती और सोच लेती कि मैं अब भी बुरी नहीं लगती हूँ । अपने बाल स्वयं ही काट लेती और बेटियों के मैं काट देती। इस तरह मैं केश कर्तन कला में भी निपुण हो चुकी थी। बहुत कम बार नाई की दुकान पर जाना हुआ २५ वर्ष में दो चार बार। जब भी जाते वह कहने लगता
'बड़े दिन हो गए बाल खराब हो गए हैं'
ब्यूटी पार्लर और मैं !! असंम्भव।
विवाह तक की तो मैंने स्वयं ही मेहंदी अपने ही हाथों दोनों हाथों में लगा ली थी। तैयार भी स्वयं ही हो गए थे , एक तमाशा था सो पूरा करना था बस लो जी हो गयी शादी।
रेलगाड़ी चली रही मेरे विचार अचानक भंग हुये ' अम्बाला ' आ गया था और आवाजे लग रहीं थी
''वाहे गुरु प्रसाद गुरूजी 'वाहे गुरु प्रसाद गुरूजी'
अनेक युवक बाल्टियां लिए रोटी सब्जी अचार रेलगाड़ी मैं बाँट रहे थे।
मुझे आदत नहीं थी कहीं भी कच्ची रसोई जीमने की फिर भी दोनों हाथ फैला दिए प्रार्थना के साथ लिए
' वाहे गुरु सच्चे बादशाह ,तू मेरी राखी सबनि थाहिं तू मेरी रखियो सबनि ठाँह , जो मेरे ऊपर टेढ़ो होव उसपर टेढ़ो तू सरकार , अपना वचन निभाना वाहे गुरु '' सवा लाख से एक लड़ाऊं , चिड़ियों ते मैं बाज तुड़ाऊं ,तो मैं गोविन्द सिंह कहाउँ ''अब तो सवा सौ करोड़ से एक जितने का समय है मेरे दाता , तू राम का अवतार हो की कृष्ण का की कोई देवता बस ये सुन ले कि मेरा कोई नहीं है कहीं भी कोई नहीं है । न पिता न पति न भाई न पुत्र न सखा न शुभचिंतक कोई न ही कोई गुरु सेवक स्वामी शरणदाता। तीन मासूम बच्चे और एक अकेली थकी टूटी घायल देह जिसमें अब सहस तक नहीं बचा है परिश्रम तक की क्षमता भी नहीं रही।पता नहीं जीवन भी कितना शेष है।
रोटियां मैंने और मुन्ने ने खायीं बहुत स्वादिष्ट लगीं। बहुत बरसों बाद बिन कर्कश तने और गाली सुने दो ग्रास गले से नीचे उतरे थे।यात्रा ही जैसे मेरा भाग्य हो कहीं नहीं रुकना कहीं नहीं ठिकाना।
एक अभ्यास बन जाती है पीड़ा भी। आश्चर्य होने लगता है सुकून से। मेरी स्थिति वहीँ थी रेलगाड़ी में यह पहली यात्रा थी जब मुझे कोई भय नहीं था मेरे पास कोई अवांछित कार्य नहीं था।
हालांकि एक जोड़े ने थोड़ी हे देर पहले कड़वी बातें सुनायीं थी। जबकि हमारी सीट थी वे लोग दिन में भी बर्थ खोलकर लेटे रहना चाहते थे जबकि कुछ दैनिक आवाजाही वालों को कष्ट हो रहा था।
ये रेलगाड़ी भोर वेला में आनी थी परन्तु आयी देर शाम को। हम दोनों ने जैसे तैसे सामान निकाला और कैंट पर उतर गए। कैंट पर स्टॉपेज नहीं था फिर भी रेल रुकी तो हमने सोचा यही उतर लें भूमि को नमन किया सोचा निकट तो यही स्टेशन पड़ेगा।
बाहर आकर ऑटो लिया और मोलभाव से डेढ़ सौ रुपये तय करके चल पड़े किराये वाले कमरे का पता निकालते हुए।मुझवे अब कुछ भी तो याद नहीं रहता। विस्मृति का वरदान है या अभिशाप या तो रो -रो के मर जाते या भूल -भूल के उलझन में पड़ते रहते हैं।
तभी राजू का फोन आया।
'' माँ सा रुको ऑटो रोको , मेरी बात ध्यान से सुनो , मकान मालिक का देहांत हो गया है आज सुबह, वहां मत जाओ, हम कुछ सोचकर बताते हैं पांच मिनट रुको। ''
फ़ोन था कि बम फटा था , अब ? कहाँ जाएँ ? कहाँ रुकें ? सामान और बच्चा साथ है। मेरे सर और कान में ही नहीं पूरी देह में दर्द था ,बुखार और दर्द की गोली नित्य की भांति लेकर चलते रहे।
फिर राजू का फोन आया '' माँ सामान चिंगु के घर रखो सामान और वहीँ रुको हम आते है उसके घर। चिंगु यानि मनीष ,नेपाल का लड़का जो होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रहा था और एन सी सी की वजह से परिचित हो गया था। उसने पिछली बार भी मेरी बहुत सहायता की थी कमरा खोजने में; हालाँकि उसे सफलता नहीं मिली और कमरा मैंने ही कड़ी धूप में गली-गली भटक कर खोज पाया था ,फिर भी चिंगू के परिवार की छोटी सी मदद उस गाढ़े समय में बहुत अनमोल थी, तब जब पानी पीने तक के लिए किसी अनजान का द्वार खटखटाना पड़ता था बाहर आकर कोई देखता तो डर लगता कि मना न कर दे। फिर वे लोग एक शिक्षित सौम्य प्रौढ़ चेहरा देखते तो स्वयं ही लेकर पानी पिलाते बल्कि विश्राम को भी कहते। ये केवल पंजाब में ही संम्भव था , जिस क्षेत्र से मैं निकली थी वहां तो यही देखा था कि यदि पेड़ की छाँव में भी चुपचाप खड़े हो जाओ तो घूर -घूर कर देखने वालों की भीड़ लग जाती और पुरुष हो या छोकरे मोबाइल से तत्काल अजनबी महिला का फोटो वीडियो लेने लगते या सामान चुराने की जुगाड़ में मँडराने लगते।
मैं राहत और सुकून से उस कड़ी धूप में भी चल पाति रही थी तो इसीलिए कि वह पंजाब था ;पश्चिमी उत्तर प्रदेश नहीं। हर तरफ महिलाएं थीं और बुर्के घूँघट नहीं थे न ही घूरती गन्दी निगाहें थी।
मैंने ऑटो वाले को सब बात बताई और कहा कि मकान के सामने से होते हुए चलो। वहां जाकर देखा की टैंट लगा है सफेद , जिसका पंजाब में अर्थ होता है शोक सभा , भीड़ है और जोर -जोर से रोने विलापने की करूण आवाज़े आ रही हैं।
मैंने सोचा कि यदि मैं जाऊं तो मनहूस कहेंगे सब कि कदम पड़े और दुःख आया। मैंने सामान चिंगु के बरामदे में रखवाया , वह दूसरी मंजिल पर निकट के ही बंगले मेँ किराये पर माँ और बहिन के साथ रहता था।
क्रमश जारी
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भाग तीन
एक नगर अनजाने अपनों का सा
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राजू चिंगु के यहाँ ही था। पंजाब की की परंपरा है कि ऑटो वाल्वे स्त्री सवारी होने पर सामान स्वयं ही भीतर तक भेज कर आते हैं। दूसरी मन्जिओल तक ऑटो वाले ने हे सामान चढ़ाने में मदद की। अब काया करना था ? राजू ने कहा चलो यूनिवर्सिटी चलते हैं। राजू का हॉस्टल एंट्री का समय हो चुका था हम लोग तुरंत दूसरा ऑटो लेकर यूनिवर्सिटी आ गए। चिंता थी की अब कहाँ रुकेंगे पहनने के कपड़ों वाला सूटकेस साथ ले लिया था राजू ने। राजू के कमरे पर समान रखकर हम चारों यानि मैं , राजू, मुन्ना, और तेज कैंपस में आकर बगीचे की उसी पुरानी जगह जाकर बैठ गए जहाँ सदा से हम राजू के आने की प्रतीक्षा करते थे। बलदेवराज पार्क , ेहिं बी बैठ कर हर बार बहुत गहरे मन से बहुत पीड़ा लेकर ह्रदय में करूँ प्रार्थनाएं की थी। आज फिर वहीँ मूक विनय प्रार्थना जारी थी। जेब से जप माला पर जप जारी था। आस्था का एक लाभ तो अवश्य है की घोर निराशा में भी मानव को एक एक चमत्कार की आशा लगी रहती है की काया पता अब कदाचित अब कुछ चमत्कार हो जाये और सब कुछ ठीक हो जाये। हालाँकि अनेक बार मेरी प्रार्थना अनसुनी ही रह गयी परन्तु चमत्कार भी बार- बार होते रहे हैं। थोड़ी हे देर मैं एन सी सी वाले लड़के लड़कियों का समूह आया और पाँव छूकर हल चल पूछने लगा। यूनिवर्सिटी के चिकित्सालय के सामने वाले पार्क में जिसे राजू मुर्गा पार्क कहती है ,सारे छात्रों ने मिलकर छोटी सी जन्मदिन पार्टी का प्रबंध किया हुआ था। हमारे यात्रा जो १४ अप्रैल को परंम्भ होनी थी १५ को प्रारम्भ होकर १६ को पूरी हुयी और १६ अप्रैल राजू का जन्मदिवस होता है। मेरे पास कुछ नहीं था ,केवल आशीर्वादों के भावुक संदेश मन ही मन प्रार्थना और चिंता के। राजू भी उसी चिंता में थी। इसीलिए कुछ कम उल्लास से वह जन्मदिन मोबाइल फ़ोन की रोशनियों में मनाया गया। सब चले गए बधाइयाँ दे कर। रह गए हुईं चार , रुकने की व्यवस्था की खोज में। हॉस्टल के कमरे में रुकनइ की अनुमति नहीं थी। राजू तेज दोनों अपनी उपस्थिति लगवाने हॉस्टल चलीं गयीं और सुनसान लगती आवाजाही के बीच बगीचे में रह गए हम दो प्राणी ,मुन्ना और मैं। सामान राजू ले गयी। तीन घंटे बाद राजू का फ़ोन आया मान आ जाओ। हम हॉस्टल के भीतर चले गए डरे हुए , यह राजू के ही साद व्यवहार संस्कारों का लाभ था कि कभी झूठ न बोलने वाले छत्र की छवि थी सबको विश्वास था। हम भीतर गए कक्ष में भी था तो रूममेट का अंशिका बनारस से कुछ मीठा बोलने वाली किन्तु बहुत स्वार्थी आलसी और लालची लापरवाह पढ़ाकू से लड़की। राजू ने उसे भी समझा कर विश्वास में ले लिया और इस तरह मेरे दो दिन दो रात रुकने की व्यवस्था हुयी। इंडक्शन और कैटल हम पहले ही बच्चों के लिए आकस्मिक भोजन की व्यवस्था हेतु रख गए थे सो उसी पर फिर दो दिन भोजन पकाया चुपके से। सरा दिन इधर उधर घूमते रहते और देर रात आकर रुक जाते। उसी भटकन के समय यूनिवर्सिटी के संस्थापक के प्रतिमा और समाधि के सामने बेंच पर बैठे- बैठे प्रार्थना करते रहते '' हे पवित्र आत्मा कुछ तो विशिष्ट दिव्य होगा आपमें जो एक साधारण हलवायी की दुकान से इतनी विशाल भव्य यूनिवर्सिटी की स्थापना हो पायी , मुझे भी कहीं कोई छोटी बड़ी जैसी भी हो मेरे और मेरे तीनो बछ्कों के लिए पर्याप्त हो इतनी आय की जॉब दिला दो मैं आपको सदेव पिता तुल्य मानूंगी मेरे तो जाणदाता ने मेरा जीवन ही नष्ट कर दिया सब तरह से मुझे गंन्दगी से भरे बिना बिजली पानी मार्ग वाले मालिओं बस्ती के भी सबसे उजड़ा गंवार लड़ाकू जाहिल अनपढ़ परिवार ंवें जन्भूमि से पांच सौ मील दूर दुर्गम दुरूह भयंकर स्त्री विरोधी अपराधी समाज में बिना मेरी प्रकृति शिक्षा मानसिक शरीरिक क्षमता और लक्ष्य सपनों को समझे पटक दिया और भुला दिया की कोई बेटी विवाह के बाद भी मरने तक निभाई जाती है। उसी की कमी से ये सब तने अपमान हिंसा और देश निकाला हुआ। आप मुझे शरण आयी दत्तक पुत्री ही मन लो इन बच्चो, के नाना बनकर जहाँ हजारों कर्मचारी है एक को और जगह दे दो। प्रार्थना में गहरी विराट शक्ति है। यही प्रार्थना में पिछली बार जब राजू को समान देने आयी थी तब स्वर्ण मंदिर में करके गयी थी। चार घंटे क़तर में लगे लगे पसीने से तर -बतर लाखो की भीड़ में भी मेरा मन लगतार प्रार्थना करता रहा था। वहीँ निशान साहिब यानि वह विशाल लोहे की साँग जो की बुंंदेलखंड के देवी मंदिरों में हमने जगदंम्बा की पूजा के समय माता के दिव्यास्त्र के रूप में पूजी जाती देखि थी ,इधर '' स्वर्ण मंदिर ''
''हरमन्दिर साहिब ' में ' निशान साहिब कहके कपडे से ढंकी हुयी देखी। मैंने अपने दुपट्टे से चीयर फाड़ा और राखी बांध दी उस दिव्यास्त्र को। आज से वही गुरूजी आप मेरे बच्च्चों के मामा हुए और पंजाब मेरा मायका। अब में ये दोनों बेटियां आपकी रखवाली में दे रही हूँ मेरे विश्वास आस्था प्रार्थना का मन रखना। पिछली यात्रा में दूर दूर तक कोई विचार या संम्भावना तक नहीं थी की मुझे यूँ अचानक घर बस्ती त्यागकर आना है। न नौकरी न रोजगार रहने का ठिकाना और न जान पहचान न कोई पूँजी तो काया सोचते।
दो दिन बाद हम लोग केंट के समीप वाले गाँव खुसरोपुर में बसी नयी कॉलोनी के सबसे भव्य भवन के किराये के कमरें में पहुंचे। हालेंड से लौटे एन आर आई यानि अप्रवासी भारतीय की कोठी थी जिसमे पहले एक वृद्ध दंम्पति रहते थे। ईसाई परिवार मुझे देवदूत के तरह ही लगा उस समय तो। क्योंकि भारी किराया सुन -सुन कर एक के बाद एक गली सड़क माकन देखते -देखते हम थक कर निराश हो चुके थे। मकान मालकिन बहुत स्थूल देह वाली प्रौढ़ महिला थी। जिसने हमे पानी पिलाया और भोजन चाय को भी पूछा। यद्यपि व्याकुल मन के कारण हमारी भूख प्यास समाप्त थी। समान लेकर हम रात में आये थे चूँकि राजू तेज की कक्षाएं सायंकाल ६ बजे तक रहतीं थीं। राजू मुन्ना हम एन सी सी का छात्र गोपाल जो दोनों बेटियों को बहिन मानता था और जिसे हमने माकन मालकिन को बड़ा बेटा बताया हिमाचल का आर्मी परिवार का सरल किन्तु बहुत सेवाभावी लड़का था। रात का भोजन हम पूरी सब्जी बनाकर क्ले आये थे। गोपाल को के लिए बहुत मन्ना पड़ा। ये बहुत अच्छा था की कमरे में सीलिंग फैन दो चारपाई निवार वाली दो कुर्सी और बरतन की रैक थी। एक घंटे में मैंने सामान लगा लिया। और खाना खा कर हम सब लेट भी गए बहुत थके थे। उस रात को आधी नींद आयी भो पहले हो उठकर राजू तेज का खाना पकाया पैक कर दिया। गोपाल हॉस्टल चले गए तेज आ नहीं सकती थी क्यों उसकी कक्षा देर शाम ८ बजे तक होती थी एन सी सी के कारण और हम। अब एडमिशन चिंता नहीं थी। क्योंकि जैसे कि हम पहले ही पिछली यात्रा में दिसंबर में ही कान्वेंट स्कूल की परीक्षा दिलवाकर ले गए थे और मुन्ने ने आश्चर्यजनक तरीके से आकस्मिक होने पर भी सर्वोत्तम अंकों से पास भी कर ली थी। फिर मार्च में जब आये तो हमारे सामने संकट था दूरी और व्यय का। फिर तभी आर्मी पब्लिक स्कूल से स्ताहन न होने के लेकर निराश होकर , इंटेररनेट पर खोज की और तीन चार स्कूल चुने थे मुन्ने ने वह परीक्षा भी उत्तम अंको से आकस्मिक होने पर भी पास कर ली थी और सब चकित थे क्योंकि अधिकांश बच्चों के हस्तलेख और समय ज्ञान सीमा सब ओसत ही थे । मुन्ना राजू के ही भाँति विशेष है लेख तो बहुत सुन्दर है ही स्वयं ही पढ़ने की आदत भी है जिससे मुझे बहुत सहायता मिलती है। पंजाब आर्म्ड पोलिस स्कूल में मुन्ने को आसानी से प्रवेश मिल गया पूरा दिन मेरा वहां लग गया बिना खाये पिए बैठे और व्याकुलता से टहलते हुए जबकि शेष सब खा पी रहे थे। मेरी भांति मुन्ना भी व्याकुल था। बहुत अनुनय करके उसे कुछ खिलाया था। सांध्य होते होते मुझे प्रवेश का सब कार्य पूरा करके दे दिए प्रपत्र -पत्र। अब मुझे मुन्ने के जन्म प्रमाण पत्र स्थानांतरण और अन्य समाना लेन थे। दूसरी यात्रा में मैंने बहुत भागदौड़ करके सब जुटाया। बिना कोई अशोर चर्चा केमुन्ना हर दिन मेरे साथ हर ऑफिस जाता और चुपचाप मेरे कागज पर्स मुझे भी सहस देता रहता ९ वर्ष की बालिका जैसे माँ और मैं युवा बेटी होऊं।
इस बार जब किराये के कमरे पर थे तो अगले इन सबसे पहला कार्य यही किया कि मुन्ने के स्कूल गए और प्रवेश शुल्क जमा किया लगभग तीस हजार रूपये तो इसी में खर्च हो चुके थे। भी तय हो गयी। राजू रोज सुबह कमरे से निकलती और रात होने से पहले कमरे पर पहुँच जाती। दुबली पतली सी लड़की जैसे रत दिन हाड़ तोड़ परिश्रम करती आ रही थी। उसकी मुखाकृति देखि तो कलेजा मुंह को आने लगता। दस किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चल रही थी वह। तब जब की उसके घुटने में भीषण पीड़ा थी।
कोठी बहुत सुन्दर थी। हरा भरा लॉन मुख्या सड़क के निकट। बड़ा सा भयानक कुत्ता रखवाली को था जो पहले ही दिन पहचानने लगा था। दूसरी मंजिल पर हमरा कमरा बहुत बड़ा था आगे बरामदा पीछे खुला केबिन था ऊपर भी एक बड़ी छत थी और कमरे के चारों तरफ भी बाहर सारा खुला स्थान था। कुछ समय के लिए लगा हम सुखी हो ही गए अंततः , दूर दूर तक हरे भरे खेत , निकट ही बड़ा सा स्टेडिऍम , पास हे तजा गाढ़ा दूध भी एक विशाल कोठी वाले सरदार जी के यहाँ से मिलता बहुत सस्ते दामों पर जिसमे भरपूर मालयी और घी निकालता। सब्जी भी निकट हे मिल जाती। किराने की दुकान वाला सामान अपने स्कूटर से कमरे तक पंहुचा जाता। कुछ दिन बाद पता चला की ये लोग वाल्मीकि मेहतर थे जो बाद में ईसाई बन गए। तब जब माकन मालिक के तेरहवीं हुयी तो सब सफाई कर्मचारी रिश्तेदार जुटे जिन्होंने धर्म नहीं बदला था। मन ही मन सोचा लो ये सीता वनवास भी सत्य हुआ। यूँ ही यदा -कदा सोचते रहते थे कि काश कोई हमे भी वाल्मीकि धर्म शरणदाता की तरह मिल गया होता तो हम भी ये यातनागृह त्याग देते और देखो संयोग कि मिला घर तो वाल्मीकि का। मि. जिंजर थापर ने बहुत सारी स्थाई संपत्ति खस्दी कर डाली थी हालेंड से आने के बाद। उनका एक बेटा बहु जो नीदरलेंड में रहते थे आये हुए थे। मिलनसार और विनम्र लोग थे। मेरे लिए एक और सुविधा वाली बात थी मुन्ने की बस बिलकुल निकट आती थी। और वह बिना किसी को लिए भी आ सकता था। हालाँकि हम या राजू या तेज उसे लेने छोड़ने रोज जाते रहे थे. मात्र सोउ कदम की दूरी पर ही बस रुकती ,वहां भी एक मिठाई की दुकान का शेड था जिसमे ३ और बच्चे भी आर्म्ड पुलिस फाॅर्स के हे स्कूल में पढ़ते थे। पंजाब में या तो लोग फौज में जाने के दीवाने हैं या फिर फ़्रांस कनाडा इंग्लॅण्ड अमेरिका। बहुत सम्पन्नता का कारण भी है आयु कुछ भी हो स्त्री हो या पुरुष कमाई के बारे में पहले तय्यारी करते हैं। कोई नहीं सोचता काम क्या है केवल ये ध्यान रखते है प्यासा कितना मिलेगा। इसीलिए पंजाब का खान पान रहन सहन दूसरे राज्यों की तुलना में विलासितापूर्ण और भव्य है। आधुनिक से आधुनिक मशीने लगाना और बड़ी से बड़ी अलग तरह की दिखनें वाली कोठी बनवाना ,पंजाब की पहचान बन चुका है। जीवन कुछ कुछ पटरी पर आने लगा था। अब तलाश थी आजीविका की। हमने कुछ अखबारों के दफ्तर और कुछ टूशन की जुगाड़ कर ली थी अगला कदम था कोर्ट जाकर सदस्यता लेना और प्रेस कलब जाकर किसी भी तरह से पत्रकार का परिचय पत्र बनवाना। अनजान नगर में ये दो परिचय मेरे लिये अस्सरा बन सकते थे , यदयपि मैंने मन बना लिया था कि मुझे किसी दुकान में सेल्स गर्ल से लेकर किसी कोठी में कुक हैलपेर का भी काम करना पड़ा तो करेंगे परन्तु अब पीछे नहीं लौटेंगे। राजू की यूनिवर्सिटी का उपाधि वितरण समारोह था। राजू को अनेक पुराकसकारों के लिए बार बार स्टेज पर बुलाया जाना था। मुझे भी अभिभावक के टूर पर बुलाया गया था। वह एक मई का दिन था। मंच का अवसर देख कर मन में हुक सी उठती है आज भी मुझसे स्टेज जाने कबसे रूठी हुयी है। जबकि कभी हर दिन तालियों के बीच कभी भाषण कभी गायन कभी मंच संचालन तो कभी काव्य पाठ चलता हे रहता था। बचे हुए समय में चुनावी सभाएं थी। अनेक कार्यक्लरमों के निर्णायक तो कभी मुख्य अतिथि होते थे। आज गुमनाम और एकदम निराश्रित हम चार लोग विशाल हल में थे। मंच से बार बार किसी अभिभावक से दीपक प्रज्ज्वलित करने का निवेदन किया जा रहा था सब संकोच में थे ,तभी हम उठे और साढ़े कदमों से मंच पर जाकर दीपक जला दिया , तीन बतिया हम जला चुके थे। चौथी जलने लगे की तभी प्रो चांसलर आकर बोली दूसरों को भी जलाने दीजिये , तब तक मेरी देखा देखी कुछ और लोग भी आ चुके थे।कुछ देर बाद जब दोबारा राजू का नाम पुकारा गया तो मुझे भी पुकारा गया। हम राजू के साथ मंच पर चढ़े तो फिर वही स्टेज के आह सी याद आयी , कब तक यूँ ही गुमनाम रहना होगा ईश्वर ? स्टेज पर डायरेक्टर जनरल मैनेजर ऑफ़ यूनिवर्सिटी जो बहुत बुजुर्ग थे ने पूछ लिया तो परिचय दिया राजू ने। राजू के अनेक कार्यक्रमों से वे पहले भी परिचित होंगे। बहुत प्रसन्न मन से कह दिया आना कभी माँ को लेकर मिलने। कार्यक्रम के बाद भोजन भी था परन्तु मेरा मन ही जब उदास था तो भीड़ देखकर सदा की भांति अलग जाकर खड़े हो गए राजू अपने प्रमाण पत्र लेने गयी थी वे बुजुर्ग भी वहीँ बाहर खड़े थे उत्सुकतावश कुछ देख रहे थे बात करना चाहते थे परन्तु हम बहुत शून्य भाव से खड़े थे। वे एक अन्य समूह से बतियाने लगे।
एक दिन बाद राजू ने आकर कहा माँ चलो मिल आते हैं इतने बड़े बुजुर्ग व्यक्ति की बात का सम्मान रखना चाहिए।हम लोग जाकर मिले बहुत देर तक बात की उन्होंने। राजू ,तेज दोनों से बहुत प्रभावित थे। तबवही पूछ लिया जॉब क्यों नहीं कर लेती यूनिवर्सिटी में ? हमने कहा कि देख तो रहे है। उन्होंने अचानक पूछा सी वी है ? हम कुछ कहते इससे पहले ही राजू ने मेरा सी वी निकल कर डायरेक्टर जनरल मैनेजर सर की टेबल पर रख दिया। पढ़ते पढ़ते उनकी आँखे चमकने लगीं। और बोले अरे वह आप तो बहुत अधिक पढ़े लिखे हो !! वकालत की है !! पत्रकार रहे हो !! समाज सेवा ,साहित्य अरे वाह वेरी गुड।
समय की भौहों पर एक मुस्कान खिली जैसे और जॉब का इंटरव्यू हुआ पूरा दिन तरह तरह से परीक्षा ली जाती रही , परन्तु जो किसी भी तरह की परीक्षा से कभी द्र ही नहीं हो वो अब इन साधारण से सवालों का क्या करता। पूरा दिन मैं जप करती रही मौन। क्योंकि मुझे इस समय जॉब की बहुत बहुत आवश्यकता थी। कुछ लोग जिनमे एक विकलांग व्यक्ति राकेश कुमार भी था कुछ नकारात्मक तरीके से कमियां निकल रहे थे। कंप्यूटर पैर भी परीक्षा ली गयी। जाप बहुत अच्छी नहीं थी क्योंकि मेरी टाइपिंग स्पीड बहले बहुत फ़ास्ट थी परन्तु बहुत दिनों से की पैड छुआ ही नहीं था तो क्या करते। शेष सब बातें सकारात्मक थी। मुझे नहीं मालूम था की मैं किस पोस्ट के लायक हूँ, किन्तु राजू के कहने पर मैंने पचास हजार पार्टी माह की स्लरी की मांग रखी थी जिस पर सौदे बाजी हो रही थी। सबसे अच्छा लगा प्रो चांसलर मैडम रश्मि मित्तल से मिलना। मुन्ना किराये के कमरे पर था और कुश हॉस्टल मैं ,राजू मेरे साथ था , मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी जैसे जैसे शाम हो रही थी। आखिरी इंटरव्यू के बाद मुझे कुछ पेपर साइन कराये गए थे। मैं बाहर आ गयी ये सोच कर की ये बस आखिरी है। रात होने को थी मैंने सुबह से एक कप चाय तक नहीं ली थी। बहुत से लोग तो इस देरी से निराश होकर जा चुके थे।तभी फोन आया एक लड़की का ' मैडम आप हो कहाँ अभी जाना नहीं है , मैंने जगह पूछी तो वो बोली आप अपनी लोकेशन बातो मैं आती हूँ , वह आयी और मुझे लेकर एक विशाल हॉल मैं पहुंची चांसलर हॉल। मैं चुप थी क्योंकि मेरे पास कोई और वजह ही नहीं थी किसी से बात करने बोलने की। एक लड़की बहुत मेक अप में बार बार कुछ न कुछ बोलेन की कोशिश कर रही थी, परन्तु मुझे उसका बोलना तनिक भी नहीं सुहा रहा था। प्रो चांसलर मैडम से मैंने साफ साफ कह दिया पूरी कहानी का सार की मुझे जॉब की बहुत जरूरत है आप कहें तो मैं यूनिवर्सिटी मैं झाड़ू भी लगाने का काम कर सकती हूँ , सेलरी की कोई सीमा मैं तय नहीं करूंगी बस आप ही सोच लो की तीन बेटियों सहित मेरा व्यय भार मैं उठा लूँ। उनका बोलचाल बात करने का तरीका इतना अपनत्व भरा था की में आश्वस्त हो गयी तभी की मुझे जॉब मिल ही गयी है। एक से दूसर फिर तीसरे फिर चौथे कमरे मैं घूमते हम कुछ बचे खुचे लोगों को एक बड़े से सेमिनार रूम मैं बिठा दिया गया। मुन्ने के पास कौशिकी पहुँच गयी थी राजू ने बताया। राजू मेरे साथ थी। ससे बाद में मेरा नंबर आया। एक कमरे में बुलाया गया अपॉइंटमेंट लेटर दिया और बधाई देकर वही विकलांग व्यक्ति सकारात्मक स्वर में बोला , बधाई हो आपकी चालीस हजार पैर मंथ सेलरी पर जॉब मिल गयी है , ये मेरा नंबर है कोई बात जरूरत हो तो आप मुझे कॉल कर सकते हो। शब्द सुनने पर मुझे उछल पड़ना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ मैं शांत थी धीमी सी आवाज में कहा थैंक यू। उन लोगों मई से एक ने पूछा ' कब से ज्वाइन कर सकती हैं आप मैंने कहा जब से आप कहें। वे लोग दो मिनट बात कटे रहे फिर बोले ७ मई से ? मैंने कहा ठीक है। फिर मेरे ओरिजिनल दस्तावेज मांगे और खा ये सिक्योरिटी बतौर मेरे पास रहेंगे। मैंने खा ठीक है किन्तु प्राप्ति दीजिये। वे लोग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। मैंने फिर कहा कि अभी जो जॉब मिली भी नहीं उसके लिए मैं पूरी जिंदगी की कामयी बिना किसी सुबूत के कैसे दे दूँ ? तब वे लोग केवल ऍम ए और हायर सेकेंडरी किमार्कशीट रखकर बोले ठीक ? तब भी मेरा सावला सुनकर समझाया की ये सैलरी से सिक्योरिटी पूरी काटने के बाद आपको लौटा दिए जायेंगे हमारे पास साफे रहेंग आप फोटो ले लियो फोटो स्टेट करा लो। मैंने राजू की ररफ देखा राजू की राजी देख कर दे दिए और। वापस चल दिए। राजू बहुत कूदने की स्थिति में था और मैं नयी चिंता के साथ की अब क्या -क्यों की जिम्मेदारी है।
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