सुधा राजे की कविता :- भ्रम ही तो यहाँ।

भीङ थी
केवल जताने के लिये
संबंध नाते
किंतु पीङा में बिलखता मन बदन
एकांत में रोया
नहीं था कोई काँधा कोई बाजू
कोई तकिया
सिर्फ मेरी ही निबल बाँहें लपेटे
थीं मुझे
औक़ात अपनी याद आयी,
जो दिलायी याद
किंचिंत मर्मबेधी शब्द स्वर
परिहास के विष लिप्त
तीखे फर फलक की नोंक से बहते
हृदय के रक्त ने
मैं एक पल होकर चकित
ठिठकी विवश अभ्यासवश
झिझकी
मुझे फिर
खोजना ही था मेरा अस्तित्व
भूला
और खोया हक़ विलय अधिकार
सब कर्त्तव्य
की लंबी अँधेरी यात्रा में
एक खाई और कई दीवार थीं
फिर से बनी
तब से अहर्निश हर सुबह
है अनमनी हर साँझ ज्यों
अवसाद के प्रासाद में
डूबी हुयी 'दो शब्द
दुहराती मिली रजनी अनिन्द्रित
तंद्र मन झकझोरती
"औक़ात
क्या तेरी बता अस्तित्व
क्या तेरा समझ तो,
'जोङती हूँ अब तलक बिखरे हुये
सारे दमकते कण मेरे अस्तित्व
की ये यात्रा अब है सदा एकांत
की ठंडी कुटी के ध्यान से ऊपर
उठी प्राची क्षितिज के भ्रम
सरल सौन्दर्य से आगे
चली जाती रहस्यों की कहानी ',
खोजती अस्तित्व अब साँसें
नहीं है जो कहीं परिमाण में
आकार में 'आकर समेटे और मैं फिर
जी उठूँ फिर जीव होकर ',
प्रेत हूँ
या आत्मा या पंचतत्वों की सरल
रचना जटिल क्या हूँ अविग्रह मैं
निराकारी 'गहन संवेदना के सुर
बजाते वंशिका उर दंशिका मेरे
लिये "मैं "अब रहा कब 'जब
समूचा तन जगत ब्रह्मांड होकर
सत्त्व मेरा तत्त्व मुझसे
पूछता अस्तित्व है क्या?
क्या किसी का? और
तेरा या कि मेरा 'मैं असीमित
हो विलय होकर अभी तक हूँ
चकित अपने 'जटिल भौतिक
अचेतन चेतना के सब विभाजन
देखती 'विषपायनी ज्यों कुंभगत
मंथन कि वारिधि अंक से
निकली सुधा मेधा मुझे
अनुमानती औक़ात मेरी और मैं हूँ
ही नहीं कुछ भी कहीं सब एक
भ्रम ही तो यहाँ आ हा,
!!!!!!!
©®सुधा राजे


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