सुधा राजे का लेख --""हिंसक कुप्रथाओं में छिपे स्त्री शोषण के बीज।""
सती प्रथा के अंत के बाद भी लोग
नहीं बदले हैं,
जीवन और मृत्यु दोनों पर
जीवात्मा का वश जब नहीं है तब
किसी हादसे या बीमारी या बुढ़ापे
से दिवंगत व्यक्ति की मृत्यु
का उत्तरदायी किसी की स्त्री को कैसे
ठहराया जा सकता है ।
जिस उत्सव और तङक भङक से विवाह
किया जाता है
उतनी ही विद्रूपता से एक
विधवा का अपमान परंपरा के नाम
पर किया जाता है ।
एक तो वह स्त्री वैसे ही दुख से
निढाल और आगामी जीवन के लिये
तरह तरह की आशंकाओं से ग्रस्त
होती है ।
उसी पर क्रूरता पूर्वक
उसको जो जो ढकोसले बूढ़ी बुजुर्ग
औरतें करातीं हैं """चीत्कार
हाहाकार और आर्तनाद के बीच """"
किसी भी कोमल मन का विदीर्ण
हो जाना स्वाभाविक है ।
ऐसा घोर कुकृत्य परंपरा के नाम पर
कब तक ढोया जायेगा!!!!!!!
आया है सो जायेगा राजा रंक फकीर
।
तब विवाह के बाद चाहे अस्सी बर।
साथ रहे हों दो में से एक को पहले
जाना है । कभी पुरुष कभी स्त्री ।
जब स्त्री पहले मृत्यु को प्राप्त
हो जाती है तब अधिक कुछ रस्म
रिवाज़ नहीं रहते । एक दाहसंस्कार
और दूसरे गंगभोज के ।
किंतु यदि ईश्वर की क्रूर दृष्टि से
पुरुष पहले काल कवलित हो जाता है
तब दुख चरम सीमा पार करने
लगता है ।
एक तो कमाने वाले
मुखिया की पतवार टूटने
की व्यथा दूसरे
साथी का बिछङना तो समान रूप से
है ही हृदय विदारक । फिर ये क्रूर
परंपरायें स्त्री को नदी तालाब पर
पकङ कर खींचते चीखते रोते चीत्कार
करते ले जाना और वहाँ सब सुहाग
धोकर विलाप
मचाना चूङियाँ तोङना बाल बिखेर
कर काटना और गीले वस्त्रों में छोङ
देना!!!!!!!!!
अब जब तक कोई भाई भतीजा आकर
कपङे ना ओढ़ाये वह पङी लोटती रहे
धूल रेत पर ""जीवित शव
""की बेशरमी ओढ़कर कि उसमें साहस
नहीं चिता पर कूदने का!!!!!!!
क्या निहितार्थ हैं ऐसी कुप्रथाओं के?
कि विवाह करते
ही जो लङकी ""कन्यादान ""करते
पराई हो गयी । पूरा जीवन जिस
पति सास ससुर जेठ देवर की सेवा में
बिताया बच्चे पाल पोसकर बङे किये
दुख सुख सब मायके को अलग समझकर
पराये घर को अपना कहकर सहे
""""बंधुआ की तरह काम काज में
खटती रही """वही स्त्री जिससे यह
अपेक्षा की जाती है
कि ""मायका ""भूल जाये!!!! वही
जब उसका पुरुष उससे पहले दिवंगत
हो जाये तो ', फिर अब उस पुरुष के
परिवार से उसका कोई नाता न
रहा????
वह एक अनाथ हो गयी???
वह फिर से मायके
की ही जिम्मेदारी बन गयी????
यदि मायके वाले किसी कारण साथ न
दें तो??
यदि मायके में कोई भाई भतीजा न
हो तो??
इस परंपरा के अनुसार वह एक
अभागी पापात्मा मनहूस स्त्री है
जिसको घर नें रहने का अधिकार
नहीं है ।
और
यदि भाई भतीजे शरम की चादर और
सूनी कलाईयों पर मायके के सहारे
की चांदी की चूङी न डालें तो वह
स्त्री कहीं भी जाये अब????
बेशक क़ानून विधि संविधान ने
विधवा को बहुत सारे अधिकार दे
दिये हैं और वह
पति की संपत्ति की स्वामिनी है ।
किंतु यह समाज कब ऐसी बेहूदा क्रूर
परंपराओं से मुक्त होगा??
एक तो वह स्त्री वैसे
ही दुखियारी ऊपर से उसको पकङ
पकङ कर घसीटती नोचती निराभृत
करती बूढ़ी बुजुर्ग औरतें धोबिनें और
क्रूर क्रियाकांड!!!!!!!
कितने व्रत उपवास सेवा पूजन पाठ
और मन ही मन याचनायें करतीं हैं
स्त्रियाँ ""सुहागिन ""मर जाने के
लिये ।फिर भी पति से पहले
यदि नहीं मरीं तो इस अपराध
की कितनी क्रूर तरीके से
दी गयीं ""यातनायें ""इनको कब बंद
किया जायेगा???
((आज एक रिश्ते की ननद
की दुर्दशा पर जिनकी आयु साठ वर्ष
है) )
©®सुधा राजे
511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
7669489600
9358874117
sudha.raje7@gmail.com
यह रचना पूर्णतः मौसिक और अप्रकाशित है।
नहीं बदले हैं,
जीवन और मृत्यु दोनों पर
जीवात्मा का वश जब नहीं है तब
किसी हादसे या बीमारी या बुढ़ापे
से दिवंगत व्यक्ति की मृत्यु
का उत्तरदायी किसी की स्त्री को कैसे
ठहराया जा सकता है ।
जिस उत्सव और तङक भङक से विवाह
किया जाता है
उतनी ही विद्रूपता से एक
विधवा का अपमान परंपरा के नाम
पर किया जाता है ।
एक तो वह स्त्री वैसे ही दुख से
निढाल और आगामी जीवन के लिये
तरह तरह की आशंकाओं से ग्रस्त
होती है ।
उसी पर क्रूरता पूर्वक
उसको जो जो ढकोसले बूढ़ी बुजुर्ग
औरतें करातीं हैं """चीत्कार
हाहाकार और आर्तनाद के बीच """"
किसी भी कोमल मन का विदीर्ण
हो जाना स्वाभाविक है ।
ऐसा घोर कुकृत्य परंपरा के नाम पर
कब तक ढोया जायेगा!!!!!!!
आया है सो जायेगा राजा रंक फकीर
।
तब विवाह के बाद चाहे अस्सी बर।
साथ रहे हों दो में से एक को पहले
जाना है । कभी पुरुष कभी स्त्री ।
जब स्त्री पहले मृत्यु को प्राप्त
हो जाती है तब अधिक कुछ रस्म
रिवाज़ नहीं रहते । एक दाहसंस्कार
और दूसरे गंगभोज के ।
किंतु यदि ईश्वर की क्रूर दृष्टि से
पुरुष पहले काल कवलित हो जाता है
तब दुख चरम सीमा पार करने
लगता है ।
एक तो कमाने वाले
मुखिया की पतवार टूटने
की व्यथा दूसरे
साथी का बिछङना तो समान रूप से
है ही हृदय विदारक । फिर ये क्रूर
परंपरायें स्त्री को नदी तालाब पर
पकङ कर खींचते चीखते रोते चीत्कार
करते ले जाना और वहाँ सब सुहाग
धोकर विलाप
मचाना चूङियाँ तोङना बाल बिखेर
कर काटना और गीले वस्त्रों में छोङ
देना!!!!!!!!!
अब जब तक कोई भाई भतीजा आकर
कपङे ना ओढ़ाये वह पङी लोटती रहे
धूल रेत पर ""जीवित शव
""की बेशरमी ओढ़कर कि उसमें साहस
नहीं चिता पर कूदने का!!!!!!!
क्या निहितार्थ हैं ऐसी कुप्रथाओं के?
कि विवाह करते
ही जो लङकी ""कन्यादान ""करते
पराई हो गयी । पूरा जीवन जिस
पति सास ससुर जेठ देवर की सेवा में
बिताया बच्चे पाल पोसकर बङे किये
दुख सुख सब मायके को अलग समझकर
पराये घर को अपना कहकर सहे
""""बंधुआ की तरह काम काज में
खटती रही """वही स्त्री जिससे यह
अपेक्षा की जाती है
कि ""मायका ""भूल जाये!!!! वही
जब उसका पुरुष उससे पहले दिवंगत
हो जाये तो ', फिर अब उस पुरुष के
परिवार से उसका कोई नाता न
रहा????
वह एक अनाथ हो गयी???
वह फिर से मायके
की ही जिम्मेदारी बन गयी????
यदि मायके वाले किसी कारण साथ न
दें तो??
यदि मायके में कोई भाई भतीजा न
हो तो??
इस परंपरा के अनुसार वह एक
अभागी पापात्मा मनहूस स्त्री है
जिसको घर नें रहने का अधिकार
नहीं है ।
और
यदि भाई भतीजे शरम की चादर और
सूनी कलाईयों पर मायके के सहारे
की चांदी की चूङी न डालें तो वह
स्त्री कहीं भी जाये अब????
बेशक क़ानून विधि संविधान ने
विधवा को बहुत सारे अधिकार दे
दिये हैं और वह
पति की संपत्ति की स्वामिनी है ।
किंतु यह समाज कब ऐसी बेहूदा क्रूर
परंपराओं से मुक्त होगा??
एक तो वह स्त्री वैसे
ही दुखियारी ऊपर से उसको पकङ
पकङ कर घसीटती नोचती निराभृत
करती बूढ़ी बुजुर्ग औरतें धोबिनें और
क्रूर क्रियाकांड!!!!!!!
कितने व्रत उपवास सेवा पूजन पाठ
और मन ही मन याचनायें करतीं हैं
स्त्रियाँ ""सुहागिन ""मर जाने के
लिये ।फिर भी पति से पहले
यदि नहीं मरीं तो इस अपराध
की कितनी क्रूर तरीके से
दी गयीं ""यातनायें ""इनको कब बंद
किया जायेगा???
((आज एक रिश्ते की ननद
की दुर्दशा पर जिनकी आयु साठ वर्ष
है) )
©®सुधा राजे
511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
7669489600
9358874117
sudha.raje7@gmail.com
यह रचना पूर्णतः मौसिक और अप्रकाशित है।
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